Book Title: Multan Digambar Jain Samaj Itihas ke Alok me
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Multan Digambar Jain Samaj

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Page 9
________________ प्रस्तावना आदर्श समाज के सदियों से बढ़ते चरण गुलाबी नगरी जयपुर मे आदर्श नगर स्थित दि० जैन मन्दिर के मुख्य द्वार पर जब मै आकर रुकी तो ऐसा लगा जैसे किसी चित्रपट गृह में आई हूँ । मन्दिर के बाहर का दृश्य ही वडा मोहक एव आकर्षक है । इस मन्दिर की पावन भूमि का यह तिकोना पथिको को भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर आव्हान करता हुआ सुशोभित होता है । महावीरकीर्ति स्तम्भ ने इस तिकोने की शोभा मे चार चाद लगाये है । बरबस ही दर्शक का मन मन्दिर मे प्रवेश पाने को बेचैन हो जाता है । मन्दिर मे सफाई ऐसी कि पत्थर चादनी सा चमकता है, जिसमे मुह देख लो | गर्भगृह मे वीतराग प्रभु की अनेक छवियो मे चमकता एव झाकता परमात्मा का सौम्य रूप सहज ही दर्शक को भीतर तक आप्लावित कर देता है । भक्तजन अनजाने मे ही कहने को विवश हो जाते है कि मन्दिर बहुत ही सुन्दर बनाया है । जयपुर मे आकर जिसने यह मन्दिर नही देखा उसने कुछ नही देखा । ये सभी मूर्तिया देश विभाजन के समय ई 1947 मे वायुयान द्वारा पाकिस्तान स्थित मुलतान एव डेरागाजी खान से आई है । यह सुनकर यात्री आश्चर्यान्वित हो श्रद्धा सहित कह उठता है धन्य है इन लोगो की धार्मिक निष्ठा को । मन्दिर के साथ स्वाध्याय भवन, सरस्वती भण्डार तथा रोगियो की सक्रिय सेवा के अर्थ महावीर कल्याण केन्द्र इसकी पूर्णता को प्रदर्शित कर रहा है जिसमे वैद्यरत्न श्री सुशील जी एव उनके सुशिष्य श्री अशोक जी गोधा निष्ठापूर्वक मानव सेवा करते है । सुदूर प्रदेश मे शका के समाधान रूप विद्वद्वर पंडित टोडरमल जी की रहस्यपूर्ण चिट्ठी इस समाज के तत्वप्रेम, आध्यात्मिक जिज्ञासा एव मानव सेवा के परिचायक है । यू तो वर्ष के तीन सौ पैसठ दिन यहा सामूहिक पूजन एव शास्त्र सभा चलती है । परन्तु दशलक्षण, अष्टान्हिका एव दीपावली आदि पर्वो के दिनो मे जिस सुर-ताल से गाजेबाजे के साथ सामूहिक पूजन एव साध्य आरती होती है, उसको सुनकर मूक भी मुखर हो उठता है । वह दृश्य देखते ही बनता है । पर्व के दिनो मे सभी लोग एकाशन पूर्वक हरीसब्जियो का त्याग करते है । इस समाज मे साधु-भक्ति भी कम नही है । साधुओ के आवास की सुन्दर व्यवस्था है तथा लोगो को साधु-सेवा व आहार-दान मे वडा आनन्द आता है । मुट्ठी भर जैन घर से बेघर होकर जयपुर व दिल्ली मे आकर बसे । अपने व्यापार को जमाया, घर बनाये और फिर इतने अल्प समय मे विशाल मन्दिर का निर्माण वास्तव मे ही दुष्कर परन्तु प्रशसनीय कार्य है । इसलिए कहा है- " धर्मो रक्षति रक्षित " ।

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