Book Title: Mantrishwar Vimalshah
Author(s): Kirtivijay Gani
Publisher: Labdhi Lakshman Kirti Jain Yuvak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ मंत्रीश्वर विमलशार शहनाई के मधुर स्वरस गगन गूंज उठा। मंडपमें भाँवरे पड़ी तथा बड़ी धूमधामसे लग्नकार्य सम्पन्न हुआ। इस प्रकार सभी का समय मानन्द मंगल में बीत रहा था । कुछ ही दिनोके पश्चात् वीरमती, नेढ, विमल और श्री आदि परिवार सहित पुनः पाटणमें आकर रहने लगी। अभी तक पाटण में विमलशाह का परिचय नगण्य सा था । विमलशाहने सोचा कि हमारे पूर्वजोंने यहीं पर मंत्री पद पर कार्य किया हैं, मैं भी इसी कुल में उत्पन्न हुआ हूँ, इन्हींका पौत्र हूँ, अतः मुझे भी कुछ पराक्रम दिखाना चाहिये। दूसरे ही दिन प्रातःकालकी मंगलमय बेलामें पाटणके राजमार्ग पर विमलशाह, मणि, मुक्ता, मानिक आदि बहुमूल्य रत्नों को फैलाकर बैठ गये। उस समय पाटणमें राजा भीमदेव का शासन था । इस अवसर पर राजा भीमदेव की ओरसे नमरमें वीरोत्सव मनाया जा रहा था जिसमें अनेक योद्धा व सैनिक अस्त्र शस्त्रों के नाना प्रकार के खेल. खेल रहे थे । लक्ष्य पर निशाना साधा जा रहा था परन्तु एक २ कर सभी निशान चूक रहे थे। विमलशाह दूर खड़े २ मौन भाव से यह सारा कौतुक देख रहे थे। उन्होंने चुटकी काटते हुए धीरे से कहा-वाह ! वाह !. अरे देखा, देखा रावतों का पानी ! राजा भीमके सैनिको ! देखा लिया तुम्हारा पानी, वाह रे तुम्हास शूरवीरता । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32