Book Title: Mantrishwar Vimalshah
Author(s): Kirtivijay Gani
Publisher: Labdhi Lakshman Kirti Jain Yuvak Mandal

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Page 19
________________ मंत्रीश्वर विमलशाह ___ . अन्त में विमल ने ही पहलवानों को पृथ्वी पर पछाड़ा और विमलशाह की जयजयकार होने लगी। विमल की विजयपताका फहराने लगी। राजा और मंत्रीगण दाँतों तले उँगली दबाने लगे। शीतकाल में घी की तरह सभी जम गये । सभी की छाती धड़कने लगी । महाराज ने मन में सोचा-यह तो वणिक हैं कि कौन है ? किसी प्रकार हमारी तो चलने ही नहीं देता । सारे उपाय निष्फल गये । चुगलखोर और चापलूसो, मुँह लगे सेवको की महाराज के चारों ओर भीड़ लग गई। उनमें से एक बोल उठा-महाराज ! अभी उपाय है । विमलशाह के आने पर यह कहना कि तुम्हारे दादा लाहिर मत्री के समय का हमारा लेना निकलता है । आप बिना किसी संकोच के यह बतला दें कि यह कर्ज ५६ करोड़ टंक का है । इस उपाय से हम उसकी सारी सम्पत्ति हड़प लेंगे । निर्धन हो जाने पर कितने भी शक्तिशाली का बस नहीं चलता । धन लेना प्राण लेने के बराबर है। सभी ने इस बात का समर्थन किया कि उपाय ठीक है और इस प्रकार मंत्रणा पूरी हुई। . विमलशाह अपने कर्तव्यानुसार नियमित रूप से राजसभा में आते है । उनके हृदय में सदा अपने स्वामी के हित की ही भावना रहती थी । स्वप्न में भी जब उन्होंने कभी स्वामी का अहित नहीं सोचा तो राज्य लेने का तो प्रश्न ही कहाँ था ? उनकी तो एक मात्र इच्छा यही थी कि किसी प्रकार स्वामी के राज्य का विस्तार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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