Book Title: Mantrishwar Vimalshah
Author(s): Kirtivijay Gani
Publisher: Labdhi Lakshman Kirti Jain Yuvak Mandal

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Page 31
________________ २७ - - - मंत्रीश्वर विमलशाह अब जिनमंदिर का कार्य निर्विघ्न आगे बढ़ा। जिनमंदिरों का प्रतिदिन का खर्च विमलशाहको कम लगा, अतः उन्होंने कलाकारों से कहा कि अबसे सारा कार्य स्वर्णका ही करना होगा पर अग्रणी सेठों ने विमलशाह से निवेदन किया-महाराज ! समय अच्छा नहीं है । सभी राजा आप जैसे त्यागी नहीं होते अतः स्वर्ण कार्य स्थगित कर दिया जाय । फलस्वरूप सोनेका कार्य बंद कर अंतमें पत्थर का कार्य शुरू किया गया। पत्थर की बुकनी भी चाँदी के भाव पड़ने लगी । चौदह वर्ष तक कार्य चलता रहा । कलश, ध्वज, तोरण, मण्डप, स्तम्भ' छत-जहाँ दृष्टिपात होता था वहाँ सर्वत्र शिल्पियोंने कला के अनुपम रंग भरे थे, अद्भुत पच्चीकारी की थी और उस शिल्प कार्यमें महापुरुषों के जीवनचरित्र चित्रित किये गये थे। वाह कला ! वाह कारीगरी । जैसे देव विमान ही देख लो। विक्रम संवत् १०८८ में विमलवसहि में विमलशाह के बनवाये हुए जिनमंदिर में पीतल की १८ भारकी मूलनायक देवाधिदेव श्री ऋषभदेव स्वामीकी प्रतिमाजी को स्थापित किया गया तथा उसकी प्रतिष्ठा जैनाचार्य श्रीमद् धर्मघोषसूरीश्वरजी महाराज के वरद हाथों से करवाई गई थी। प्रतिष्ठा महोत्सव निराले धूमधाम व ठाटबाट से, भव्य आडम्बर तथा उत्साहसे मनाया गया था। याचकों को मुक्त हस्तसे दान दिया गया था तथा लोगोंमें लोकोक्ति चल पड़ी, ""विमलवसहि के प्रासाद तो कुछ निराले ही हैं" इस अनुपम धर्म कार्यसे विमलशाहके यशोगान देशविदेश में गाये जाने लगे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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