Book Title: Mantrishwar Vimalshah
Author(s): Kirtivijay Gani
Publisher: Labdhi Lakshman Kirti Jain Yuvak Mandal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो जिणाणं श्री लब्धि - लक्ष्मण - कीर्ति जैन युवक मंडल ग्रन्थमाला का तृतीय पुष्प मंत्रीश्वर - विमलशाह 맑 लेखक दक्षिण देशोद्धारक पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजयलक्ष्मणसूरीश्वरजी महाराज के विद्वान शिष्यरत्न शतावधानी पंन्यासजी श्री कीर्तिविजयजी गणिवर - द्रव्य सहायक श्री अमृतलाल विनयचन्दजी सिंघी, - सिरोही -प्रकाशक - श्री लब्धि लक्ष्मण कीर्ति जैन युवक मंडल -सिसेही (राजस्थान ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि. सं. २०२३ वी. सं. २४९३ ई. सं. १९६७ प्रथमावृत्ति १५०० -हिन्दी अनुवादकश्री रणजीतमल एस. सिंघी, एम. ए., सिरोही. प्राप्ति स्थान : २. श्री आत्मकमललन्धि१. श्री लधि लक्ष्मण सूरीश्वरजी कीर्ति जैन युवक मंडल जैन ज्ञान मन्दिर, सिरोही (राजस्थान ) ज्ञान मन्दिर लेन बम्बई २८ दादर DADAR. B.B. मुद्रक :कान्तिलाल सोमालाल शाह, साधना प्रिन्टरी, धीकांटा रोड अहमदाबाद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना हिरोशिमा का अणु विस्फोट, भारत-चीन आदि के राज्य परिवर्तन, शीत युद्ध की संशयात्मक स्थिति तथा जीवन यापन के साधनों का विशेष व्यक्तियों के हाथ में केन्द्रीयकरण आदि कतिपय ऐसे ऐतिहासिक तथ्य हैं जिन्होंने मानवीय सांस्कृतिक तत्वों के विकास एवं मानव सभ्यता की प्रगति में अविश्वास तथा अश्रद्धा का बीजारोपण किया है तथा सभ्य मानव के नैराश्यपूर्ण हृदयमें विद्रोह की भावना जाग्रत कर दी है। आधुनिक मानव में ईश्वर और धर्म के प्रति आस्था डगमगा रही है । वह घोर अनिश्चय और जीवन की दुर्दानाविभिषिकाओं के समक्ष अपने को असहाय पा रहा है । अवसाद, अनास्था और निराशा से पीड़ित वह अपनी स्वयं की दृष्टि खो बैठा है । सागर के तूफान में फंसी अपनी जीवन नौका को किनारे लगाने के लिये वह व्यय है । पर जीवन की इस भीषण प्रतिकूलताओं के बीच भी व्यक्ति में आशा की किरण विद्यमान रहती है । उद्विग्न मन सुदूर इतिहास के पृष्ठों पर बड़ी उत्सुकता से झांकता है- देलवाडा के विश्व विख्यात एवं शिल्पकला में अद्वितीय जैन मन्दिरों की दीप्तिमान झलक उसका पथ प्रशस्त करती है । भारतीय संस्कृति के आध्यात्मिक तत्त्वों का परम्परागत सिंचन करती हुई इन मन्दिरों की ज्योति आज भी भँवर में फंसी नौकाका मार्गदर्शन करती है । इस दिव्य ज्योतिको आज से करीब एक हजार वर्ष पूर्व भारत के महान सपूत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रीश्वर विमलशाहने जीवन में अजति समस्त धनराशि का सदुपयोग कर प्रज्वलित किया। उस महापुरुष की उच्च, निर्मल एवं पावन भावनाओं का प्रतीक ये मंदिर आज भी मानवमें छिपी आध्यात्मिक ज्योति का दिग्दर्शन कर रहे है। मंत्रीश्वर विमलशाह पराक्रमी व महान दयालु पुरुष थे। आज संसार के बड़े बड़े राष्ट्रोंकी विपुल सम्पति संहार के शस्त्रों के निर्माण में लग रही है और उनकी यह दूषित वृत्ति शान्ति के लिये प्रश्नवाचक चिह्न बन गई है । मानव मानव की हत्या पर तुला हुआ है। कैसी विडम्बना है। इन प्रलयकारी घड़ियोंमें ऐसे महान सपूत की गौरव गाथा ही, इन बड़े राष्ट्रों को अहिंसा तथा उपकरणों के सदुपयोग की राह पर, अग्रसर करने में सिद्धहस्त हो सकती है। चरित्र निर्माणमें ऐसे महापुरुषों की जीवन गाथा अपना विशिष्ट महत्व रखती है। विद्वान लेखक शतावधानी पंन्यास जी श्री कीर्ति विजयजी गणिवरने इस पुस्तक में बड़ी ही सरल भाषामें मंत्रीश्वर विमलशाह के चरित्र का चित्रण किया है। आपकी शैली बड़ी ही रोचक व भावपूर्ण है। __इस पुस्तकके प्रकाशनमें श्री अमृतलाल विनयचंदजी सिंधी, सिरोही निवासी ने जो द्रव्य सहायता प्रदान की है उसके प्रति मंडल अपना आभार प्रदर्शित करता है। इस पुस्तक के संपादन कार्य में श्री रणजीतमलजी सिंधी व श्री बाबुमलजी मुत्ता द्वारा दी गई सेवाओं के लिए भी मंडल अपना आभार प्रकट करता है। सिरोही चंपतलाल दोसी दिनांक ३१-१०-६६ मंत्री . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ नमो जिणाणं ॥ मंत्रीश्वर विमलशाह १ : ग्यारहवीं शताब्दी के मंत्रीश्वर मंत्रीश्वर विमलशाह के नामसे कौन अपरिचित है? जिन्होंने अर्बुदाचल पर भव्य शिल्प स्थापत्य और कला की मनोहर रचना स्वरूप अद्वितीय जिन मन्दिरों का निर्माण करवाया है, उन शूरवीर नरपुंगव विमलशाह की कीर्ति-उनकी अमर यशोगाथा आज तक जनता की वाणीमें मुखरित हो रही है। वि. सं. ८०२ में वनराज चावड़ाने जब अणहिपुर पाटण को बसाया था तभी करोडपति नीन मंत्री भी गांभु से यहां आकर बसे थे । उन्हीं के वंशजों में पाटण में शूरवीर लाहिर ने दंडनायक के रूपमें ख्याति प्राप्त की थी। मंत्रीश्वर लाहिर के वीर नामक एक पुत्र था जिसका उपयुक्त समयमें वीरमति कन्यारत्न के साथ पाणिग्रहण संपन्न हुआ था तथा इसी वीरमति की कुक्षी से वि. सं. १०४० के आसपास नरपुंगव विमलशाह का जन्म हुआ था । "पुत्र के लक्षण पालने में" इस उक्तिको चरितार्थ करती हुई इनकी भव्य मुखाकृति इनके महान् उज्जवल भविष्य की द्योतक थी। बालक विमल द्वितीया के चन्द्रमा की भाँति शनैः शनैः बड़े हुए, तथा विद्याभ्यासः एवं कला कौशलमें पारंगत हो गए। इनके तेजके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रीश्वर विमलशाह आगे भले-२ फीके पड़ते थे । विमल की कार्य कुशलता देखकर पिताजीने घरका साग भार इन्हें सौंपकर गुरु महाराज के पास दीक्षा अंगीकार कर आत्म कल्याणके मंगल मार्ग पर प्रयाण किया। विमलशाह बचपनसे ही बड़े पराक्रमी थे। उनके बुद्धि कौशल और तेजके आगे भले २ फीके पड़ जाते थे। ऐसे तेजस्वी व्यक्तियों के शौर्य एवं प्रतापसे द्वेष रखनेवाले व्यक्तियों का होना स्वाभाविक ही है । ईर्ष्यालु जन विमलशाह के विरुद्ध षड़यंत्र रचने लगे। प्रतिकूल परिस्थितियों को देखकर माता वीरमति विमल को लेकर अपने पीहर चली गई। विमल अब अपने मामाके यहाँ बड़े हो रहे हैं। एक समय की बात है, विमल घोड़ी लेकर जंगलमें चराने जाते हैं । वहाँ एक नवयौवना इनके सामने आकर खड़ी होती है। विमलको चलायमान करने के लिये वह सुन्दरी भनेकानेक प्रयत्न करती है परन्तु उसे जरा भी सफलता नहीं मिलती । ये जरा भी विचलित नहीं होते । यह नवयुवती अन्य कोई नहीं, किन्तु आरासणा की अधिष्ठात्री देवी अंबाजी थीं । विमल की परीक्षा लेने के लिए आप आई थी। ऐसी युवावस्था में विमल की इतनी बढ़ता देखकर अंबाजी आप पर प्रसन्न हो गई और इन्हें वरदान देकर अदृश्य हो गई। __गाँवकी खुली हवा, सात्विक भोजन तथा निश्चित् जीवन आदि के कारण विमल का शरीर बड़ा गठीला बन गया था । पाटण के नगरसेठ श्रीदत्त के श्री नामकी पुत्री थी। नगरसेठ अपनी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रीश्वर वमलशाह बेटी के लिए योग्य वरकी तलाश में थे। विमल के पराक्रम की प्रशंसा नगरसेठ के कानों तक भी पहुँची । उन्होंने अपनी पुत्री श्री का लग्न विमल के साथ ही करने का निश्चय कर लिया। नगर सेठ विमलके ननिहाल में आए, कुंकुमका तिलक किया और श्री का लग्न निश्चित् किया । विमल के मामाने सोचा कि पुत्री नगरसेठ की है, अतः हमें भी अपनी प्रतिष्ठानुसार खूब धूमधाम और ठाटबाट से ब्याह रचना चाहिये, पर उनके पास पर्याप्त धनराशि का अभाव था, उन्होंने इस प्रसंग को कुछ समय के लिये आगे धकेल दिया। विधि का विधान अकथनीय है। परिवर्तन होते देर नहीं लगती। भाग्य जब प्रबल होता है, तब लक्ष्मी स्वयं चरण चूमती है । घटना इस प्रकारकी है कि विमल एकबार तीर कमान लेकर जंगलमें ढोर चराने के लिये निकले हुए हैं । ढोर इच्छानुसार चर रहे हैं । विमल एक वृक्षके नीचे बैठकर इधरउधर बिना किसी लक्ष्यके तीर फेंक रहे हैं। अकस्मात् तीर इंटों के ढेर पर जा गिरता है। उसमें कुछ खोखलापन मालूम हुआ। लकड़ी की सहायता से विमलने देखा कि उस खोखली जगहमें स्वर्ण मोहरोंसे भरा हुआ एक घड़ा पाया । विमल ने वहां से उसे ले जाकर अपनी माता बीरमती को अर्पण किया । इस प्रकार सहसा इतनी बड़ी धनराशिको प्राप्तकर सभी हर्षातिरेक से झूम उठे। अब तो विमलशाह के लग्न की तैयारी पूरे जोरशोर से होने लगी। मंडप रचे गए, बन्दनवारों से द्वार सजाये गये तथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रीश्वर विमलशार शहनाई के मधुर स्वरस गगन गूंज उठा। मंडपमें भाँवरे पड़ी तथा बड़ी धूमधामसे लग्नकार्य सम्पन्न हुआ। इस प्रकार सभी का समय मानन्द मंगल में बीत रहा था । कुछ ही दिनोके पश्चात् वीरमती, नेढ, विमल और श्री आदि परिवार सहित पुनः पाटणमें आकर रहने लगी। अभी तक पाटण में विमलशाह का परिचय नगण्य सा था । विमलशाहने सोचा कि हमारे पूर्वजोंने यहीं पर मंत्री पद पर कार्य किया हैं, मैं भी इसी कुल में उत्पन्न हुआ हूँ, इन्हींका पौत्र हूँ, अतः मुझे भी कुछ पराक्रम दिखाना चाहिये। दूसरे ही दिन प्रातःकालकी मंगलमय बेलामें पाटणके राजमार्ग पर विमलशाह, मणि, मुक्ता, मानिक आदि बहुमूल्य रत्नों को फैलाकर बैठ गये। उस समय पाटणमें राजा भीमदेव का शासन था । इस अवसर पर राजा भीमदेव की ओरसे नमरमें वीरोत्सव मनाया जा रहा था जिसमें अनेक योद्धा व सैनिक अस्त्र शस्त्रों के नाना प्रकार के खेल. खेल रहे थे । लक्ष्य पर निशाना साधा जा रहा था परन्तु एक २ कर सभी निशान चूक रहे थे। विमलशाह दूर खड़े २ मौन भाव से यह सारा कौतुक देख रहे थे। उन्होंने चुटकी काटते हुए धीरे से कहा-वाह ! वाह !. अरे देखा, देखा रावतों का पानी ! राजा भीमके सैनिको ! देखा लिया तुम्हारा पानी, वाह रे तुम्हास शूरवीरता । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रीश्वर विमलशाह सैनिकों ने समझा कि विमल ने हमारी खिल्ली उड़ाई है अतः उन्हें बहुत दुःख हुआ और वे सब क्रोध से आग बबूला हो गयें । कुछ ही देर में राजा भीमदेव भी वहाँ आ पहुँचे । उन्होंने भी लक्ष्य साधकर तीर फेंका परन्तु वह भी निष्फल गया । यह दृश्य देखकर विमलशाह को जरा हँसी आ गई और वे सहज ही बोल उठे - वाह महाराज वाह ! राजा भीमदेव और सैनिकों के सामने मुँह और मूँछ मरोड़कर विमलशाह से बोले बिना नहीं रहा गया और वे बोल उठे कि, अरे ! पाटण का राज्य भोटों के हाथ में आ गया है । राजा भोभदेव समझ गये कि यह कोई असाधारण व्यक्ति लगता है । यह तीरंदाज और महान् पराक्रमी दिखाई पड़ता है । भीमदेवने पूछा- क्यों विमलशाह ! किस कला में प्रवीण हों ? बोलने में तो बड़े चतुर और पारंगत लगते हो ! बताओ कौन-सी कला जानते हो ? धनुर्विद्या जानते हो ? यदि जानते हो तो उठो । २ : मंत्रीश्वर की धनुर्विद्या में निपुणता विमल बोले – महाराज ! धनुर्विद्या तो आप जैसे शूरवीर राजा महाराजा और आपके परमवीर सेवक जन जानें। हम तो रहे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रीश्वर विमलशाह बनिये । तराजू पकड़ने में भी कांपते हैं, फिर भी आपका आग्रह ही हो तो कुछ दिखाऊँ । एक बालक को सुलाकर उसके पेट पर १०८ नागरबेल के पान रखिये। फिर आप आज्ञा दें उतने ही पान बींध डालें। बालक को जरा भी चोट नहीं पहुँचेगी, महाराज ! यदि प्रतिज्ञा पूरी न करें तो मेरा जीवन आपके इंगित पर । यदि आप चाहें तो एक अन्य कला और बताऊँ ! छाछ विलौती हुई स्त्री के कानकी झूलती हुई बाली बींव डालू और फिर भी उसके कपोलों को तनिक भी चोट न आए । इतना ही क्यों ? एक व्यक्ति को पांच कोश दूर खड़ा रखिये, मेरा तीर वहाँ तक पहुँच जाएगा। इस प्रकार विमलशाह अपनी वीरता का परिचय देने लगे। उन्होंने तो तत्काल राजा भीमदेव का ही धनुष हाथ में ले लिया। टननन....टननन का टंकार किया। टंकार की ध्वनि मात्र से योद्धागण कांप उठे । “वाह वणिक्, वाह !" सारे सैनिक एक ही स्वरसे बोल उठे। विमलशाह की अपूर्व धनुषकला को देखकर राजा भीमदेव भी चकित हो गये । प्रसन्न होकर उन्हों ने उसी क्षण विमलशाह को ५०० उच्च कोटिके अश्व और रक्षामंत्री की पदवी अर्पित की तथा इनके छोटे भाई नेढ को भी सलाहकार के पद पर नियुक्त किया। राजा और प्रजा के आदर तथा स्नेह के पात्र बने । विमलशाह की कीर्ति दिन २ बढ़ने लगी । पर उनकी उन्नति की विशेषता यह थी कि सुख, समृद्धि, सत्ता और अधिकार की उत्तरोत्तर प्राप्ति के साथ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रीश्वर विमलशाह ही साथ उनकी धर्मभावना में भी दृढ़ता आने लगी। उनकी यह मान्यता थी कि प्रथम नमन परमात्मा को ही होना चाहिये । इस दृष्टिसे मिलने अपनी अंगुली की अंगूठी में भगवान की मूर्ति रख छोडी थी । उन्होंने अपने घरके आँगन में एक भव्य जिन मन्दिर भी बनवाया था । देश देशके श्रेष्ठ हाथी, घोड़े आपकी पशुशाला में झूलते थे । सचमुच विमलशाह राजसी ठाटबाट से आमोद प्रमोद में अपना जीवन यापन कर रहे थे । परन्तु जगत में आदि काल से एक ऐसे वर्गका अस्तित्व चला आया है कि जो दूसरे की उन्नत कला, प्रशस्त कीर्ति और यश गान को सहन नहीं कर सकता । विमलशाह की निरन्तर उन्नत अवस्था देखकर द्वेषीजनों के हृदय में खलबली मच गई। विमलशाह परम श्रावक, कर्मढ धर्मात्मा सदा परोपकार - रत, महा पराक्रमी तथा न्यायमूर्ति थे । अतः उनकी कीर्ति और यश चारों दिशाओं में प्रसरित था । वे सभी के सम्मान और स्नेह भाजन बन गये थे। पर दुर्जनों, इर्ष्यालु एवं द्वेषीजनों से यह कब देखा जा सकता था । आखिर कार शत्रुओंने राजा भीमदेव के कान भर कर उन्हें उल्टी सीधी बातें समझा दी । 'महाराज ! विमलशाह को आपने प्रधान पद तो दे दिया पर इसका मानतो आपसे भी बढ़ गया है । वह वड़ा अभिमानी है । वह तो किसी को भी नमस्कार नहीं करता । यदि आपको हमारी बात पर विश्वास न हो तो इसकी अंगुली की मुद्रिका को.. 66 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रीश्वर विमलशाह देख लीजिये । केवल मुद्रिका में स्थापित मूर्ति को ही वह नमन करता है । महाराज ! उसने तो हाथी, घोडे, छत्र, चामर तथा अस्त्रशस्त्रों का खूब संग्रह कर रक्खा है। मुझे तो लगता है कि इसकी आकांक्षा बड़ी ऊँची है। आपका राज्य तो वह चुटकी बजाते ले टेगा।" इस प्रकार खूब निमक मिर्च लगाकर तथा बढ़ा चढ़ा कर बातको इस प्रकार बना कर रक्खी जैसे मानो शत प्रतिशत सच हो । ऐसे ईर्ष्यालु लोग उल्टी सीधी भिड़ाने की कला में बड़े निपुण होते हैं। इस प्रकार द्वेषीजनों ने राजा भीमदेव को खूब ही भड़का दिया। बड़े लोग सदा कान के कच्चे होते हैं और बिना दीर्घ दृष्टि दौडाए ही बात को मच्ची मान बैठते हैं । राजा भीमदेव यह बात सुनते ही अत्यन्त क्रुद्ध हुए और कुछ उपाय सोचने लगे। इसी समय विमलशाह राजसभा में आ टपके । विमलशाह के तेज के आगे सभी के चहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगती थी। सभा में निस्तब्धता छा गई । विमलशाह ने अपना आसन ग्रहण किया। महाराजा भीमदेव ने धीरे से विमलशाह से कहा मंत्री ! अपना महल तो बतलाओं । विमलशाह का हृदय तो निर्मल निष्कपट था। उन्हें पता नहीं था कि महाराज दाव पेच खेल रहे हैं और विघ्न संतोषी लोगों ने इन्हें चढ़ा रखा है। - विमलशाह ने पवित्र हृदय से कहा 'महाराज ! पधार कर मेरा आँगन पावन कीजिये । मेरै अहो भाग्य' धन्य केला ! आप जैसे पुण्यशालियो की चरण एब भी कहाँ से? ... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ : पारस्परिक शत्रुता के दिन राजा भीमदेव बिना किसी विलंब के बड़े परिवार के साथ विमलशाह के यहाँ पहुँचे । मंत्रीश्वर के महल को निर्माण कला देखते ही महाराज तो मंत्र मुग्ध से हो गये । प्रथम प्रेताली की प्रथम प्राचीर में प्रविष्ट होते ही भीमदेव समझे कि विमल के भवन का यह मुख्य द्वार होगा ! परन्तु ऐसे तो एक दो नहीं, सात सात प्राचीर पार किये तब भी उनका निवास स्थान नहीं आया। महाराजा तो भारी असमंजस में पड़ गए । उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही । महल - के मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही ऐसा लगा मानो स्वर्ग का विमाम हो । प्रशिक्षित सेवक वृन्द चारों ओर खड़े हैं । उपवन का मंद मधुर समीर - आनन्द में वृद्धि कर रहा था । वातावरण प्रफुल्ल था । चारों ओर प्रकाश हो - प्रकाश फैला हुआ था । काँच के झूमर लटक रहे थे । आरामकुर्सियों, गुलाबदानियों, गद्दी तकियों तथा गलीचों की शोभा न्यारी ही थी । महाराना तो यह सब अपनी आँखों से देखकर आत्म विस्मृत से बन चुके थे । काँच की तख्तियाँ खूब चमक रही थीं । फव्वारों से जलधारा छूट रही थी । विभिन्न वाद्य यन्त्रों का मधुरनाद गूँज रहा था । विमलशाह के हर्ष का चारा- पार नहीं था। आज मेरे आँगन में मेरे स्वामी का आगमन । एक ओर तोरण झूल रहे थे, दूसरी ओर लुभावनी पुतलियाँ रज्जु संचालन द्वारा चीची झुक कर राजाधिराज का सत्कार कर रही थी । कभी नृत्य | = Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रीश्वर विमलशाह करती तो कभी पंखा डुलाती। राजा भीमदेव इन पुतलियों की कला से मुग्ध बन गया । ओर ये पुतलियाँ हैं अथवा स्वर्ग की परियां है। महाराज तनिक आगे बढ़े । भवन की बनावट अद्भुत थी । पानी का कुण्ड समझ कर राजा ने कपड़ों को ऊपर उठाया परन्तु वह तो काँच की व्यवस्था ही ऐसी थी । थोडे आगे बढे तो लगा कि कांच है, पर था पानी । अतः महाराजा के वस्त्र थोड़े भीग गये। राजा भीमदेव सहज भाव से बोल उठे-वाह रे मंत्रीश्वर ! कैसी तुम्हारी शोभा। स्थान स्थान पर सुन्दर चित्र लगे हुए थे तथा चंद्रोवे तने हुए थे। ऐसा लगता था मानो गगन में असंख्य तारे टिमटिमा रहे हो । देखने वाले की गर्दन टेढ़ी हो जाए, पगडी गिरजाए, पर दर्शनीय वस्तुओं का अन्त नहीं आ पाता था। एक ओर हाथी झूम रहे थे तो दूसरी ओर घोडों की हिनहिनाहट का शब्द हो रहा था। एक ओर कुशल कारीगरों द्वारा नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्रों का निर्माण हो रहा था । राजन् अभी तो चारों ओर दृष्टिपात कर ही रहे थे कि भोजन का समय हो गया । सोने के थाल बिछे । चारों ओर नाना प्रकार के सुगंधित व्यंजन परोसे गऐ। अन्त में राजा ने पानबीड़े लेकर विदा होने की तैयारी की। ज्यों ही चलने लगे कि दीवार से टकराये। उन्हें दीवार दिखाई नहीं दी क्यों कि वह भी कांच की बनी हुई थी। अन्त में मंत्रीश्वर हाथ पकड़ कर महाराजा के साथ चलने लगे। पर भीमदेव के हृदय में भारी उथल पुथल मच गई। मस्तिक को जैसे लकवा मार गया, बुद्धि चकरा गई अक्ल कुंठित हो गई । महाराजा सोचने लगे राजा मैं हूँ या विमल । विमलशाह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रीश्वर विमलशाह .११ की वीरता और पराक्रम से तो राजा भली भाँति परिचित ही थे । महाराजा को ऐसा लगा कि मंत्रीश्वर अवश्य मेरा यह राज्य चुटकी बजाते बजाते ले लेंगे। इनके यहाँ ऋद्धि समृद्धि का भण्डार है, शस्त्रास्त्रों का निर्माण हो रहा है और ये स्वयं गजब के पराक्रमी हैं अतः इस वणिक्कू को राज्य हड़पते क्या देर लगेगी ? इसके लिये तो यह बाँये हाथ का खेल मात्र है । राजा तो अधीर हो उठा । भय ने उस पर अधिकार जमा लिया । प्रतिपल यही सोचने लगा कि मंत्रीका किस प्रकार नाश किया जाय। राजा का मुख श्री विहीन हो गया । आप आराम कुर्सी पर विराजमान हैं । भारी चिन्ता ने इन्हें घेर रखा है । आसपास विमल के द्वेषीजनों की भीड़ लगी हुई है । महाराज ने धीमे स्वर में सेवको से पूछा बोलो क्या उपाय है ? अविलम्ब बताओ । किसी भी प्रकार से विमल का नाश करना ही पड़ेगा । 6 'गुणों की अपेक्षा दोष अधिक स्पष्ट दिखाई देते हैं' वाली कहावत यहाँ पूर्ण रूप से चरितार्थ होती है । विमलशाह ने तो अपने स्वामी को प्रसन्न करने के लिये अत्यन्त विनयपूर्वक महाराजा की सेवा की परन्तु इसका परिणाम विपरीत ही निकला । महाराज के प्रति मंत्रीवर द्वारा प्रदर्शित आदर सम्मान भी विमल के नाश का कारण बन गया । उनकी यह राजभक्ति ठीक कौए के आगे अंगूर डालने के समान हुई । अन्य प्रधानों ने विमलशाह का पत्ता काटने की युक्ति इंड निकाली । महाराजा को बताया गया कि यदि मंत्रीश्वर का वध ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ मंधीश्वर विमलशाह करना हो तो उपाथ सरल है। ज्यों ही विमलशाह राजसभामें प्रविष्ट हो, त्यों ही शेर को पिंजरे से मुक्त कर दिया जाए । विमलशाह से रहा नहीं जाएगा और ज्यों ही वह उस वनराज को पकड़ने के लिये आगे बढेमा, वहीं शेर उसे चीरकर खा जाएगा । ..महाराम ! गुड़ की ढेरी से यदि कार्य सिद्ध हो जाता हो तो। विष देने की क्या आवश्यकता ? विमलशाह के राजसभा में प्रवेश करते ही उसका खूब सम्मान करे, उसकी वीरता का बखान करे, इस पर उसे क्रोध चढ़ जाएगा और इच्छित कार्य पूरा हो जाएगा। महाराज को प्रधानों की सलाह पसन्द आई और तदनुसार षडयन्त्र रचना हो गई। राजसभा लाती है। मंत्रीश्वर विमल वहाँ आते हैं। पूर्व योजना के अनुसार शेर को मुक्त किया गया । नगर पर आतंग छा गया, जनता चीत्कार कर उठी । सभी के दिल दहल उठे। नगर में श्मशान की सी नीरवता छा गई । योद्धा गण नौ दो ग्यारह हो गए तथा सारे पाटणमें खलबली मच गई, पर किसकी मजाल जो शेर के सामने जाए । सभी दुम दबाकर भाग निकले । ऐसे प्रसंगों पर वीर पुरुष रोके नहीं रुकते । विमलशाह उठे और शेर के सामने सीने तान कर खड़े हो गए । उनके तेज से शेर निस्तेज बन गया और दुम हिलाने लगा। शेर ने अवसर देखकर ज्यों ही पंचा मारा कि विमल ने थप्पड़ मार कर बकरे को पकड़े हैं उसी भांति उसे कान से पकड़कर अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रीश्वर विमलशाह अधिकार में कर लिया । शेर सो बकरी जैसा ही बन गया। अन्त में विमलशाह ने शेर को पिंजरे में धकेल दिया। ‘मंत्रीश्वर बिमल की अय हो, जय हो' के नारे गूंजने लगे। जय जयकार के गंभीर घोष से गगन गूंज उठा। ऐसा अद्भुत पराक्रम देखकर राजा भीमदेव तो निस्तेज ही हो गया । वह तो अगम-निमम गूढ़ विचारों में खो गया । भीमदेव घबरा उठे कि अब क्या करना ? अरे इस वणिक् को राज्य छोणले विलंब नहीं होगा। विमलशाह के नाम से अब तो भले भले योद्धा भी काँपने लगे। उनके तेज के आगे सभी प्रभाहीन हो गए । अब तो विमलशाह की कीर्ति सर्वत्र फैल गई और चारों और अनेक पराक्रम के गुणगान होने लगे। ___ अन्य मंत्रियों ने राजा को आश्वासन दिया महाराज ! चिंता न करें। इसको यमलोक पहुँचाने का दूसरा तरीका हमने ढूंढ निकाला है। - दूर से शक्तिशाली पहलवानों को बुलाकर इनके साथ विमल को दंगल में उतारेंगे । पहलवान चुटकी बजाते विमल का काम तमाम कर देंगे। प्रधानों की बात स्वीकृत हो गई । पहलवानों को बुलाकर उनके कान में कहने योग्य बातें कह दी गई । ... पाठको ! विमलशाह ने ऐसा कोन सा अपराध किया है जिसका ऐसा भारी दण्ड । अपराध कुछ नहीं, केवल उसको कीर्ति, उनल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रीश्वर विमलशाह पराक्रम और उनकी उत्तरोत्तर उन्नति सह्य नहीं थी। विमल का नाश करने का एक मात्र कारण यही था । किसी भी उपाय से 'येन केन प्रकारेण' राजा एवं उसके साथी विमल का वध करना चाहते थे। नगर निवासियों के झुण्ड चारों ओर से चींटी दल की तरह उभर रहे थे । पहलवान तैयार होकर प्रतीक्षा कर रहे थे। ... विमलशाह यथा समय राजसभामें आ पहुँचे और यथा स्थान आसीन हो गए। धीरे से कुटिल हँसी हँसते हुए महाराजा ने कहा विमलशाह ! तुम हमारे सर्वस्व हो । तुम हमारे नाक और तुम ही हमारे रक्षक हो । जरा देखो तो ये पहलवान दूर देश से कुश्ती लड़ने के लिये यहाँ आये हैं । इनका गर्व अपार है, इनका कहना है कि हमारे समान पराक्रमी कोई अन्य दीखता नहीं। यदि हो तो सामने आवे मुझे तो तुम्हारे समान पराक्रमी अन्य कोई नहीं दीखता । अतः इनको पराजित कर इनका दर्प दमन करो। विमलशाह स्वस्थ मन से सब कुछ सुन रहे थे। जिन मंत्रीश्वर की धाक से वनराज भी कॉप उठा था वहाँ इन विचारे पहलवानों की क्या हस्ती ? विमल ने भुजाएँ सहलाई, पहलवानों और विमल की कुश्ती प्रारम्भ हुई । राजा और उसके साथी एकटक देख रहे थे । विमल अभी धराशायी हो जाएगा, अभी पहलवान उसे पछाड़ डालेंगे और अपनी मनोकामना पूर्ण हो जायगी, इस प्रकार के मन सूबे बांध रहे थे । पहलवानों के दाव पेच खेले जा रहे थे । सभी एकटक देख रहे थे। पर विमल तो विमल ही थे । प्रबल पुण्य वालों का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। .. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रीश्वर विमलशाह ___ . अन्त में विमल ने ही पहलवानों को पृथ्वी पर पछाड़ा और विमलशाह की जयजयकार होने लगी। विमल की विजयपताका फहराने लगी। राजा और मंत्रीगण दाँतों तले उँगली दबाने लगे। शीतकाल में घी की तरह सभी जम गये । सभी की छाती धड़कने लगी । महाराज ने मन में सोचा-यह तो वणिक हैं कि कौन है ? किसी प्रकार हमारी तो चलने ही नहीं देता । सारे उपाय निष्फल गये । चुगलखोर और चापलूसो, मुँह लगे सेवको की महाराज के चारों ओर भीड़ लग गई। उनमें से एक बोल उठा-महाराज ! अभी उपाय है । विमलशाह के आने पर यह कहना कि तुम्हारे दादा लाहिर मत्री के समय का हमारा लेना निकलता है । आप बिना किसी संकोच के यह बतला दें कि यह कर्ज ५६ करोड़ टंक का है । इस उपाय से हम उसकी सारी सम्पत्ति हड़प लेंगे । निर्धन हो जाने पर कितने भी शक्तिशाली का बस नहीं चलता । धन लेना प्राण लेने के बराबर है। सभी ने इस बात का समर्थन किया कि उपाय ठीक है और इस प्रकार मंत्रणा पूरी हुई। . विमलशाह अपने कर्तव्यानुसार नियमित रूप से राजसभा में आते है । उनके हृदय में सदा अपने स्वामी के हित की ही भावना रहती थी । स्वप्न में भी जब उन्होंने कभी स्वामी का अहित नहीं सोचा तो राज्य लेने का तो प्रश्न ही कहाँ था ? उनकी तो एक मात्र इच्छा यही थी कि किसी प्रकार स्वामी के राज्य का विस्तार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रोपर चिनलमाह हो । वे पूर्णतः स्वामी भक्त थे । उनकी धाक से शत्रुगण काँपते थे। एक बार सिन्धु देश के राजा हमीर सुमेरा ने पाटण पर आक्रमण किया । रणभेरी बजी, खूब जोर शोर से लड़ाई हुई । हमीर और राजा भीमदेव मैदान में उतरे । अन्त में हमीर पराजित हुआ। बिमल ने इस युद्ध में अत्यन्त वीरता बताई। इस अवसर पर राजा भीमदेव मंत्रीश्वर पर अत्यन्त खुश हो गये। ऐसे न्यायवान् नरश्रेष्ठ पराक्रमी तथा स्वामिभक्त मंत्रीश्वर को एक या दूसरे उपाय से मारने के षडयंत्र रचे जा रहे थे-यह कैसी विचित्रा थी? प्रभात में नित्य की भाँति मंत्रीश्वर राजसभा में आये पर राजा भीमदेव ने मुँह फेर लिया। उनके मन की मलिनता का विमल शाह को जरा भी झान नहीं था। उन्हें आश्चर्य हुआ। ऐसा क्यों ? .. शीघ्र ही विमलशाह ने महाराज से पूछा महाराज ! आपकी माराजगी का क्या कारण है ? आष जसे पाटण के प्रभु का ऐसा करने से क्या तात्पर्य ? इतने में तो एक व्यक्ति बीच में ही बोल उठा-मंत्रीश्वर ! राजा भीमदेव की कृपा की अपेक्षा रखते हो तो तुम्हारे पूर्वज लाहिर मंत्री के समय का ५६ करोड़ टंक का जो कर्न निकलता है उसे अदा कर दो और फिर महाराज तुम पर प्रसन्न है। अन्य कोई कारण नहीं है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. मालवण में पुन: निवास 3 अब विमलशाह को सारी बाते समझ में आ गई। उनकी आँखें खुल गई । राजा किसी भी उपाय से मेरा अन्त करना चाहता है और इसी उद्देश्य से उसने शेर को आजाद किया, पहलवानों को बुलाया तथा इनमें अपना तव्य सफल न होता देखकर अब रुपया माँगने की बात निकाली है । मुझे लगता है कि कान के कच्चे महाराज को अवश्य ही किसी ने भरमाया है । बस उसी समय से मंत्रीश्वर सावधान बन गये और शीघ्र ही अपने निवास स्थान पर आकर वहाँ से विदा लेने की तैयारी की । १८ वण के लोग, १० हजार पैदल, पाँच हजार अश्वारोही, हाथी, रथ और पांच हजार अश्वों को सजाया । उँटों पर निशान - डंके रक्खे । १६०० ऊटों पर सारा स्वर्ण लादा । बड़े परिवार के साथ पाटण छोड़ते समय आखिरी सलाम करने के लिये विमलशाह राजा भीमदेव के पास जाते हैं और उन्हें स्पष्ट शब्दों में कह देते हैं महाराज ! जितना परेशान आपने मुझे किया है उतना और किसी को न करें । ऐसा कहकर प्रणाम कर मंत्रीश्वर पाटण की सीमा को छोड़कर आगे बढ़े और मालवण जाकर रहे । वहाँ उन्होंने राजकीय चिह्न धारण किये। इस अवधि में. १८०० गाँवों का स्वामी चंद्रावती का राजा धंधु खड़ाली आया था, पर विमलशाह की रणभेरी का बाद सुनकर पृथ्वी पर मूर्छितः होकर गिर पड़ा। बिदा लडे विमलशाह ने प्रारंभ में ही चन्द्रावती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रीश्वर विमलशाह पर अधिकार कर लिया और राजा भीमदेव का झंडा लहरा दिया । भीमदेव का शासन घोषित किया और स्वयं दंडनायक के पद को ही सुशोभित करते रहे । इस प्रकार बिना युद्ध किये ही चंद्रावती -नगरी के सिंहासन पर आरूढ होने का सौभाग्य प्राप्त होता है । - आसपास के सामंत राजाओं ने भी उनकी प्रभूता स्वीकार करली | कैसी सज्जनता, कसी उदारता और कैसी स्वामीभक्ति । भीमदेव इनके प्राण लेना चाहते हैं फिर भी विमलशाह तो उन्हीं का नाम आगे रखते है । जैन लोग कितने स्वामीभक्त होते हैं इसका यह एक अमर उदाहरण है । विमलशाह जाति के पोरवाल थे । वे कायर नहीं "थे। उनकी नसों में क्षत्रिय तेज झलकता था । एक दिन राजसभा जमी हुई है, मंत्रीश्वर आनंद विनोद में 'समय बिता रहे हैं इतने में एक विदेशी व्यक्ति राजसभा में आकर मंत्रीवर को हाथ जोड़कर विनती करता है- महाराज ! बंगाल में रोम नामक एक नगर है । वहाँ का बादशाह हिन्दुओं का नाम सुनते ही क्रोध से आगबबूला हो उठता है और उसका प्राण लेकर ही चैन लेता है। महाराज ! उसे तो हिन्दुओ का काल ही समझिये । उसके रक्षक तो सुलतान हैं। हिन्दुओं की रक्षा का भार आप जैसे समर्थ, शक्तिशालियों को लेना चाहिये । विदेशी व्यक्ति के शब्द सुनते ही विमलशाह सतर्क हो गए - और कहने लगे अरे ! ये सुलतान फिर क्या चीज ! मालवा, मगध, नमियाड, कच्छ, मच्छ, मेवाड, कलि, कर्णाटक, लाट, भोट, भूतान 4. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रीश्वर विमलशाह और नवकोटि मारवाड आदि सभी देशों में तथा दसों दिशाओं में मेरा डंका बन रहा है, मैंने गुज गत का दंड धारण किया है, भीमदेव मेरा स्वामी है । अतः मैंने उसे पदभ्रष्ट नहीं किया है । जिसका नमक खाया है उसका वध कैसे किया जाए ! इससे तो मेरा कुल और मेरा धर्म दोनों लजाते हैं । भले ही इसने मेरे प्राण लेने के भने को षडयन्त्र रचेहों पर सेवक तो स्वामीभक्त है, कृतघ्न नहीं। इन बातों से विमलशाह की नीति परायणता और उनका जैनत्व वस्तुतः चमक उठता है। विमलशाह ने आगंतुक विदेशी व्यक्ति को अपना परिचय देते हुए कहा-हे भाग्यवान् । गौड़ देश के राजा को मैंने पराजित किया है, पंचाल मेरी वाणी बोलता है, कानड़ा तो मेरे आधिपत्य में है, काश्मीर मेरे नाम से कांपता है, चोड को मैंने दबा दिया है, बर्बर तो मेरी आधीनता स्वीकार करने को तैयार है, जालंधर मेरी कृपा पर जीवित हैं, सोरठ मेरा सेवक है, अयोध्या के महाराजा तो मेरी खंडनी (मालगुजारी) भरते हैं, तो मथुरा के भूपाल मेरे आगे भेंट रखते हैं। अब बेचारे रोम के राजा का समय पूरा हो गया है। भोजन में नाना प्रकार के व्यंजनों का आस्वादन करते समय कहीं एकाध बडा जिस प्रकार रह जाता है, उसी प्रकार यह रह गया दिखाई देता है, मंत्रीश्वर विमलशाह ने शीघ्र ही सेना तैयार की और चन्द्रावती के के बाहर पड़ाव डाल दिया। चतुरंगिणी सेना से धरती भी कांप उठी, चार हजार ऊँटों पर धन के ढेर लगाये, सोलह हजार उँटों पर अन्नादि भरा, और तरह-२ के अनशस्त्र साथ लिये । अच्छा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रीश्वर विमलशाह शकुन देखकर शुभ मुहूर्त और शुभ बेलामें कूच करना निश्चित् किया । रोम नगरकी सीमापर सेना आ पहुँची तथा रणभेरी बज उठी। रणभेरी की बुलंद आवाज सुलतानों के कानों से जा टकराई। आवाज सुनते ही सभी निस्तेज बन गये । विमलशाह के नक्कारों की आवाज से सुलतानों के मुख से पान भी गिर पड़े। यह दृश्य देखकर सम्मुख बैठी हुई बेगमों से कहे बिना न रहा गया कि जिसकी रणभेरी के घोषसे तुम्हारे मुखके पान गिर पड़े और तुम इस प्रकार घबरा उठे तो उनके साथ युद्ध किस प्रकार लडोगे ? 'गिरनेके बाद भी मियाँजी की टांग उँची की उची' कहावत के अनुसार सुलतान बोले-अरे ! उस बकाल को अभी पछाड़ देंगे । दोनों सेनाओं की 'परस्पर मुठभेड़ हुई, शस्त्र चमकने लगे । विमलशाहने ज्यों ही सिंहनाद किया त्यों ही शत्रुकी सेना, हाथी, घोड़े आदि सहित भाग खड़ी हुई। सुलतान घबरा उठे और बोले-अरे ! यह बनिया तो बड़ा जबरदस्त मालूम होता है, हार जाए-ऐसा लगता नहीं । आखिर सुलतानों ने हार मान ली ? बेगमें विमलशाह के पैरों पड़ी। उन्होंने स्वर्ण के थालों में हीरा, मानिक और मोती भस्कर मुक्त हस्त से विमलशाह का स्वागत किया। दंडके रूपमें हाथी, घोड़े और चार करोड़ द्रव्य देना स्वीकार किया और मंत्रीश्वर की अधीनता स्वीकार कर ली जिससे विमलशाह का जयजयकार हुआ। बंमणीया के पंड्या राजा को भी उसी प्रकार हराया। इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्री पर विमलशाह २१७ प्रकार देश-२ के राजा उसकी प्रभुता स्वीकार करने लग गये । बंभणीया के पंड्या राजा को तथा रोम के राजा को जीतकर जब विमलशाह सिंहासनारूढं हुए तब- पाटण के राजा भीमदेवने छत्रचामर की भेंट भेजी और कहलाया कि मंत्रीश्वर ! तुम्हारा प्रताप, तीनों खंडोंमें फैला हुआ है। हम हाथ जोड़कर विनती करते हैं: कि हमारे साथ कोई वैरभाव न रखें । आपके हृदय को कण्ट: पहुँचाना हमारे लिये लज्जाजनक है। __इस प्रकार चंद्रावती के महाराजा बनने का यश विमलशाह को प्राप्त हुआ। राजसिंहासन पर बैठने के पश्चात् एक बार खुली छत पर चढ़ कर उन्होंने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई तो उन्हें नगर की शोभा अच्छी नहीं लगी। फलस्वरूप उन्होंने नये सिरे से नगर निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया। विमलशाह जैसे धर्मपरायण जिस नगरके स्वामी हों वहाँ धर्म की उन्नति का पूछना ही क्या ? उन्होंने कलाकौशल्य से शोभायमान १८०० सुन्दर जिन मंदिर बनवाये । ८४ बाजार और ८४ जाति बस्तियाँ, सात मंदिर अंबाजी के बनवाये तथा प्रसिद्ध पौषधशालाओं, उपाश्रयो, धर्मशालाओं और दानशालाओं आदि का तो पूछना ही क्या ? नगर की शोभा वास्तवमें कुबेरकी अलकापुरी को भी मात कर रही थी। नगर की शोभा देखकर सभी घड़ीभरके लिये स्तब्ध बन जाते थे। विमलशाह जैसे जैन राजा जहाँ सिंहासन की शोभा बढ़ा रहे हों, वहाँ का वातावरण धर्ममय बना रहे तो इसमें कोई नवीनता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ मंत्रीश्वर विमलशाह . नहीं है। उनके राज्यमें पानी को तीन बार छानकर उपयोग में लिया जाता थ। । बचे हुए अन्न को बासी न रखकर उसे गरीबों में बाँट दिया जाता था । लकड़ी कंडे आदिको पहिले खूब देख भालकर तथा जाँच पड़ताल कर उपयोग में लिया जाता था। किसी भी सूक्ष्मजीव जंतु की भी हत्या न हो जाय, इस बातका पूरा ध्यान रक्खा जाता था। विशेष ध्यान देने योग्य बात तो यह थी कि चौसर खेलते समय गोटियां डालते 'मार' शब्द भी कहीं न बोला जाय इस बातकी पूरी सावधानी रक्खी जाती थी। मांस, मदिरा चोरी, शिकार, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन और जुआ-इन सात व्यसनों को देश निकाला दे दिया गया था । कई प्रकार के दूसरे धार्मिक रीतिरिवाज शुरू हो गये थे। इसीका नाम है कल्याणराज, इसीका नाम है रामराज्य और इसीका नाम है धर्म राज । जिस समय ऐसे धर्मराज थे तब प्रजा भी सुरक्षित थी, समृद्ध थी और लक्ष्मी की असीम कृपा थी। विमलशाहने जीवन में अनेकबार पवित्र श्री सिद्धगिरिजी तथा गिरनारजी जैसे महान् तीर्थोके छ'री पालक संघ निकालकर संघपति की उपाधि से वे सम्मानित हुए थे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ : विमलवसहि प्रासाद इसी अवधिमें विचरण करते-२ महान् धर्मधुरन्धर जैनाचार्य श्री धर्मघोषसूरीश्वरजी महाराज अर्बुदाचल की तलहटीमें आ पहुंचे। प्रकृति की ऐसी अनुपम छटा निहारकर सूरीश्वरजी को लगा कि ऐसे रमणीय पर्वत पर यदि श्री जिन मंदिरोंका निर्माण कराया जाय तो कितना अच्छा हो। उन्होंने अंबाजी का स्मरण किया और तत्काल ही उनका साक्षात्कार हो गया। सूरीश्वरजीने उनके समक्ष.. अपनी हार्दिक इच्छा प्रकट की और कहा कि यदि यहाँ जिन मंदिर बनें तो वास्तव में यह पर्वत एक भव्य तीर्थ के रूप में ख्याति प्राप्त करे। सूरीश्वरजी की हार्दिक अभिलाषा जानकर देवीने कहागुरुदेव यदि आपको अपनी यह मनोकामना पूर्ण करनी हो तो आप यहाँ से पाटण पधारिये। वहाँ मंत्रीश्वर विमलशाह है । बस इतने शब्द कहकर देवी अदृश्य हो गई। . देवीके वचनों को सुनकर वहाँसे विहार कर सूरीश्वरजी पाटण पधारे। देव-गुरु-भक्त मंत्रीश्वर विमलशाह भी गुरुदेव के दर्शनों के-- लिये आये । अपनी मनोकामना विमलशाह के समक्ष प्रकट करते हुए गुरुमहाराजने कहा-विमलशाह ! अति रमणीय पर्वत अर्बुदाचल की जलवायु, नैसर्गिक सौन्दर्य तथा भव्य वातावरण देखकर मुझे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ मंत्रीश्वर विमलशाह - लगा कि यहाँ पर यदि जिन मंदिर बनें और यह पर्वत एक जैन तीर्थके रूपमें प्रसिद्ध हो तो कितना अच्छा रहे ! प्राचीन काल के मंत्रीजन देव गुरु और धर्म के लिये अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिये तत्पर रहते थे । गुरुदेव के मुख से निकला हुआ वचन विमलशाह ने तुरंत शिरोधार्य कर लिया और शीघ्र ही चतुर्विध संघके साथ आरासण-कुंभारियाजी आये । वहाँ विमलशाह अन्न-जलका त्याग कर अंबाजी की आराधनामें लीन बन गये । तीसरे उपवास पर ही चक्केश्वरीजी, पद्मावतीजी और अंबाजी तीनों देवियाँ प्रकट हुई और उन्होंने विमलशाह पर अत्यंत प्रसन्न होकर वरदान मांगने के लिये कहा-मांग, मांग विमलशाह माँग, बता क्या इच्छा है ? विमलशाह बोले...-मुझे एक पुत्र और आबू पर जिनमंदिर के निर्माण का वरदान दीजिये। . देवीने कहा-"तुम्हारा पुण्य पर्याप्त नहीं है, अतः इन दो में से एक ही वरदान मांगो। मंत्रीश्वर यह बात सुनकर चिंता में पड़ गये। अंतमें इन्होंने कहा मेरी भार्या से पूछकर आपको कल बताऊँगा । तब देवी ने इसे स्वीकार किया। दूसरे दिन प्रातः विमलशाहने अपनी पत्नी श्रीमती को सारा वृत्तांत कह सुनाया। श्रीमतीने विचार कर कहा-हे स्वामिन् ! पुत्र से किसीका नाम चिरकाल तक स्थायी नहीं होता-अमर नहीं बनता ? इसके उपरांत यह भी कैसे कहा जा सकता है कि होने वाला पुत्र सपूत निकले या कपूत ? दुर्भाग्य से यदि वह कपूत निकल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रीश्वर विमलशाह गया तो सात पीढ़ियोंके अर्जित धवल यश पर कलंक की कालिमा पुत जायगी। अतः आप पुत्रकी अपेक्षा मंदिर बनवाने का ही वर माँगिये जिससे हम घीरे धीरे मोक्षके भागी बनें । पत्नीके ऐसे शब्द सुनकर विमलशाह अति प्रसन्न हुए। मध्यरात्रि में माँ का पुनः साक्षात्कार हुआ और मंत्रीश्वरने जिनमंदिर के निर्माण का वरदान माँगा। तत्पश्चात् देवी वहाँसे अदृश्य हो गई । अंतमें तीनों देवियों के वरदान लेकर विमलशाह वहाँसे पुनः पाटण लौटे । जैनाचार्य श्रीमद् धर्मघोषसूरीश्वरजी महाराज की प्रेरणा से मंत्रीश्वरने कई प्रकारसे धर्मकार्योंमें अपार लक्ष्मी का सव्यय किया था। एकबार उपदेश श्रवण के पश्चात् विमलशाह के नेत्र आँसुओं से भर उठे ! गुरुदेव ! जीवन में मेरे हाथ से अनेकों पापकर्म हुए हैं, कृपा कर मेरा उद्धार कीजिये-इस प्रकार दोनों हाथ जोड़कर हृदय के पश्चातापपूर्वक विनम्र वदन से विमलशाह गुरुदेव से विनती कर रहे थे। - ऐसे एक महान् शूरवीर, नरवीर, विमलशाह कैसे पाप भीरु थे। उन्हें परलोक का भय था। अंतःकरण धार्मिक भावनाओंसे ओतप्रोत था। तभी तो ऐसे उद्गार निकले थे। गुरुदेव के सदुपदेश से विमलशाहने अर्बुदाचल पर मंदिर बनवाने का निश्चय किया, पर अर्बुदाचल पर मिथ्यात्विजनों ने स्थल के लिये भारी झगड़ा किया। अंतमें स्वर्ण मोहरें बिछा कर स्थल प्राप्तः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ मंत्रीश्वर विमलशाह किया । एक अन्य स्थलके लिये पाँच करोड़ टंक देने पड़े और कार्य का श्रीगणेश हुआ । सहस्त्रों कारीगरों को काम पर लगाया और - त्वरित गति से कार्य आरम्भ हुआ । निपुण शिल्प शास्त्रियोंको आमंत्रित किया गया । ७०० शिल्पी कार्य पर लगे । सात सात मस्तक प्रमाण गहरी नींव खोदी गई । नींव भरने के लिये स्वर्णमोहरों से लदे सात सौ ऊट मँगवाये गये पर ऐसा करनेसे कहीं नींव कच्ची न रह जाय इस डर से सोनाचाँदीको गलाकर उसकी इंटे ढालकर नींव भरी गई। जिस स्थल पर जिनप्रासाद बनाया जा रहा था, उस भूमिके · स्वामी वालीनाथ ने पुनः उपद्रव खड़ा कर दिया। कहावत है कि ' श्रेयांसि बहु विघ्नानि ' कल्याणकारी कार्यों में अनर्चीत विघ्न आ पड़ते हैं । परंतु धैर्यशाली व्यक्ति विघ्न बाधाओं तथा विपदाओं से डरते नहीं, वे तो सामने जाकर उनसे जूझते हैं । दिनमें मंदिरका जितना भी कार्य होता था, रातको वालीनाथ पूरा का पूरा गिरा देता था । इस प्रकार एक दो दिन नहीं, एक दो महीने नहीं, परन्तु छः छः महीनों तक उपद्रव उसने बनाये - रक्खे । विमलशाह ने देवको नानाविधि समझाया, पर उसने बात नहीं मानी। अंतमें आधी रातको विमलशाह तलवार हाथमें लेकर कहीं छिपे रहे । ज्यों ही विकराल वालीनाथने प्रवेश किया त्यों ही - मंत्रीश्वर ने उस पर छलांग मारी जिससे उनके तेजसे वह बेचारा श्रीहीन, स्फूर्तिहीन बन गया और वहाँसे नौ दो ग्यारह हो गया। मतलब कि भाग छूटा । .. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ - - - मंत्रीश्वर विमलशाह अब जिनमंदिर का कार्य निर्विघ्न आगे बढ़ा। जिनमंदिरों का प्रतिदिन का खर्च विमलशाहको कम लगा, अतः उन्होंने कलाकारों से कहा कि अबसे सारा कार्य स्वर्णका ही करना होगा पर अग्रणी सेठों ने विमलशाह से निवेदन किया-महाराज ! समय अच्छा नहीं है । सभी राजा आप जैसे त्यागी नहीं होते अतः स्वर्ण कार्य स्थगित कर दिया जाय । फलस्वरूप सोनेका कार्य बंद कर अंतमें पत्थर का कार्य शुरू किया गया। पत्थर की बुकनी भी चाँदी के भाव पड़ने लगी । चौदह वर्ष तक कार्य चलता रहा । कलश, ध्वज, तोरण, मण्डप, स्तम्भ' छत-जहाँ दृष्टिपात होता था वहाँ सर्वत्र शिल्पियोंने कला के अनुपम रंग भरे थे, अद्भुत पच्चीकारी की थी और उस शिल्प कार्यमें महापुरुषों के जीवनचरित्र चित्रित किये गये थे। वाह कला ! वाह कारीगरी । जैसे देव विमान ही देख लो। विक्रम संवत् १०८८ में विमलवसहि में विमलशाह के बनवाये हुए जिनमंदिर में पीतल की १८ भारकी मूलनायक देवाधिदेव श्री ऋषभदेव स्वामीकी प्रतिमाजी को स्थापित किया गया तथा उसकी प्रतिष्ठा जैनाचार्य श्रीमद् धर्मघोषसूरीश्वरजी महाराज के वरद हाथों से करवाई गई थी। प्रतिष्ठा महोत्सव निराले धूमधाम व ठाटबाट से, भव्य आडम्बर तथा उत्साहसे मनाया गया था। याचकों को मुक्त हस्तसे दान दिया गया था तथा लोगोंमें लोकोक्ति चल पड़ी, ""विमलवसहि के प्रासाद तो कुछ निराले ही हैं" इस अनुपम धर्म कार्यसे विमलशाहके यशोगान देशविदेश में गाये जाने लगे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रीश्वर विमलशाह ____अठारह करोड़, तरेपन लाख द्रव्यका व्यय तो विमलशाह के जिन मंदिरोंमें ही हो गया था। आज भी दूर-२ देशों के यात्री इन जिनमंदिरों के दर्शनलाभ कर अपने आपको कृतकृत्य मानते हैं तथा इनकी कला को देखकर आत्म विस्मृत हो जाते हैं। यहाँ के मंदिर जगत् की अद्भुत वस्तुओंके रूप में प्रसिद्ध हैं। इन तीर्थों का ‘दर्शन भी जीवन में एक महान कार्य की सिद्धि के समान है। विमलशाह का कलाप्रेम अद्भुत था। ऐसी ही कलाकारीगरी तथा पच्चीकारी से युक्त भव्य जिनमंदिर इन्होंने आरासण कुंभारियाजी में भी बनवाये हैं। मंत्रीश्वर विमलशाह ने जैन शासन की अनुपम प्रभावना कर जीवन को उज्जवल बनाया है। आज भी इतिहास के पृष्ठौ पर इनकी यशस्वी देह स्वर्णाक्षरों में जगमगा रही है / * समाप्त * Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com