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मंत्रीश्वर विमलशाह
ही साथ उनकी धर्मभावना में भी दृढ़ता आने लगी। उनकी यह मान्यता थी कि प्रथम नमन परमात्मा को ही होना चाहिये । इस दृष्टिसे मिलने अपनी अंगुली की अंगूठी में भगवान की मूर्ति रख छोडी थी । उन्होंने अपने घरके आँगन में एक भव्य जिन मन्दिर भी बनवाया था ।
देश देशके श्रेष्ठ हाथी, घोड़े आपकी पशुशाला में झूलते थे । सचमुच विमलशाह राजसी ठाटबाट से आमोद प्रमोद में अपना जीवन यापन कर रहे थे ।
परन्तु जगत में आदि काल से एक ऐसे वर्गका अस्तित्व चला आया है कि जो दूसरे की उन्नत कला, प्रशस्त कीर्ति और यश गान को सहन नहीं कर सकता ।
विमलशाह की निरन्तर उन्नत अवस्था देखकर द्वेषीजनों के हृदय में खलबली मच गई। विमलशाह परम श्रावक, कर्मढ धर्मात्मा सदा परोपकार - रत, महा पराक्रमी तथा न्यायमूर्ति थे । अतः उनकी कीर्ति और यश चारों दिशाओं में प्रसरित था । वे सभी के सम्मान और स्नेह भाजन बन गये थे। पर दुर्जनों, इर्ष्यालु एवं द्वेषीजनों से यह कब देखा जा सकता था । आखिर कार शत्रुओंने राजा भीमदेव के कान भर कर उन्हें उल्टी सीधी बातें समझा दी । 'महाराज ! विमलशाह को आपने प्रधान पद तो दे दिया पर इसका मानतो आपसे भी बढ़ गया है । वह वड़ा अभिमानी है । वह तो किसी को भी नमस्कार नहीं करता । यदि आपको हमारी बात पर विश्वास न हो तो इसकी अंगुली की मुद्रिका को..
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