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मंत्रीश्वर विमलशाह
करती तो कभी पंखा डुलाती। राजा भीमदेव इन पुतलियों की कला से मुग्ध बन गया । ओर ये पुतलियाँ हैं अथवा स्वर्ग की परियां है। महाराज तनिक आगे बढ़े । भवन की बनावट अद्भुत थी । पानी का कुण्ड समझ कर राजा ने कपड़ों को ऊपर उठाया परन्तु वह तो काँच की व्यवस्था ही ऐसी थी । थोडे आगे बढे तो लगा कि कांच है, पर था पानी । अतः महाराजा के वस्त्र थोड़े भीग गये। राजा भीमदेव सहज भाव से बोल उठे-वाह रे मंत्रीश्वर ! कैसी तुम्हारी शोभा। स्थान स्थान पर सुन्दर चित्र लगे हुए थे तथा चंद्रोवे तने हुए थे। ऐसा लगता था मानो गगन में असंख्य तारे टिमटिमा रहे हो । देखने वाले की गर्दन टेढ़ी हो जाए, पगडी गिरजाए, पर दर्शनीय वस्तुओं का अन्त नहीं आ पाता था। एक ओर हाथी झूम रहे थे तो दूसरी ओर घोडों की हिनहिनाहट का शब्द हो रहा था। एक ओर कुशल कारीगरों द्वारा नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्रों का निर्माण हो रहा था । राजन् अभी तो चारों ओर दृष्टिपात कर ही रहे थे कि भोजन का समय हो गया । सोने के थाल बिछे । चारों
ओर नाना प्रकार के सुगंधित व्यंजन परोसे गऐ। अन्त में राजा ने पानबीड़े लेकर विदा होने की तैयारी की। ज्यों ही चलने लगे कि दीवार से टकराये। उन्हें दीवार दिखाई नहीं दी क्यों कि वह भी कांच की बनी हुई थी। अन्त में मंत्रीश्वर हाथ पकड़ कर महाराजा के साथ चलने लगे। पर भीमदेव के हृदय में भारी उथल पुथल मच गई। मस्तिक को जैसे लकवा मार गया, बुद्धि चकरा गई अक्ल कुंठित हो गई । महाराजा सोचने लगे राजा मैं हूँ या विमल । विमलशाह
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