Book Title: Mahavira Vani Part 2
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 10
________________ महावीर वाणी भागः 2 . आपको समय होता, तो यहां पधारते, कुछ चर्चा होती, यथा वर्तमान मुनियों में मेरा स्थान ।" कितनी भोंड़ी आत्म - श्लाघा और अहंकार है। असल में जैसा कि इनके पहले के पत्रों से स्पष्ट है, ये चाहते हैं, मैं इनकी जीवनी लिख कर साबित कर दूं कि इनसे बड़ा त्यागी, तपस्वी और विद्वान जैन मुनि कोई दूसरा नहीं है। इन बेचारों पर तरस ही खाया जा सकता है। ओशो को महावीर पर बोलते हुए सुन कर अथवा उनकी 'महावीर वाणी' को पढ़ कर पहली बार यह संभव हुआ है कि गैर-जैन भी महावीर में उत्सुक हुए हैं और जैनों के आचरण और व्यवहार के कारण उन्होंने महावीर के संबंध में जो ग़लतफहमियां पाल रखी थीं, वे दूर हो रही हैं। ठीक वैसे ही, जैसे ओशो को अन्यान्य प्रज्ञापुरुषों पर बोलता हुआ सुन कर ओशो के प्रेमी जैन बंधु उन प्रज्ञापुरुषों में उत्सुक हुए हैं। जैन, जो महावीर द्वारा प्रतिपादित अनेकांत के दावेदार हैं, इन अनेकांत का ढिंढोरा पीटने वालों, अनेकांत को जीवन में उतारने का दावा करने वालों को ही जब मैं देखता हूं कि वे ओशो द्वारा व्याख्यायित 'महावीर वाणी' में उत्सुक नहीं हैं, तब बहुत पीड़ा होती है। सही कहूं तो अनेकांत को तो ओशो के संन्यासी और लाखों-लाखों प्रेमी ही जीवन में, व्यवहार में उतार रहे हैं, सभी प्रज्ञापुरुषों को प्रेम करके । अनेकांत के प्रति जैनों की उपेक्षा को देख कर मुझे उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर डॉ. बशीर बद्र का एक शेर याद आता है : सुबह के दर्द को, रातों की चुभन को भूलें, किसके घर जाएं कि उस वादाशिकन को भूलें; और तहज़ीबे-गमे-इश्क निभा दें कुछ रोज़, आखरी वक्त है, क्या अपने चलन को भूलें। ललितपुर, जहां एक जैन घर में मेरा जन्म हुआ, एक जैन बहुल नगर है— जैनों की पूरे देश में बहुत कम संख्या की दृष्टि से । मैं बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति का था। घरवालों को देखा करता था कि सुबह - सुबह नहा-धोकर मंदिर चले जा रहे हैं दर्शन करने। हाथ में द्रव्य लिए। यह द्रव्य प्रायः सबसे सस्ता चावल होता है। मंदिर से दर्शन या पूजा-पाठ करके आने वालों को देखता था और गौर करता था कि कहीं कोई भीतरी बदलाहट इनमें होती है या नहीं। पाता था, कि उलटा हो रहा। धार्मिक होने का दंभ और अहंकार एक ओर, और, दूसरी ओर क्रोध, लोभ, लालच, झूठ में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि...। धार्मिक सास मंदिर से घर आते ही, किसी छोटी बात पर बहू पर आग बबूला हो रही है और तरह-तरह से उसकी 'मंगल कामना -युक्त' शब्द उच्चार रही है। ऐसे ही धार्मिक बहू मंदिर से लौटी और सास को मानो कच्चा चबा जाने को तैयार है। पुरुष भी इससे भिन्न नहीं। मंदिरों में जैन- पंचायत की सभाएं कर रहे हैं और 'निश्चयनय' और 'व्यवहारनय' के गुटों में बंट कर एक-दूसरे से लड़ने-मरने को तैयार कोई इस भ्रम में न पड़े कि यह जो कुछ मैं कह रहा हूं, वह केवल जैनों पर ही घटित है। वह तो क्योंकि बात महावीर की है और चूंकि जैन अपने को महावीर का दावेदार मानते हैं, इसलिए विशेष रूप से उन्हीं का जिक्र किया अन्यथा तो दुनिया के हर तथाकथित धार्मिक का, चाहे वह हिंदू हो, चाहे मुसलमान, चाहे ईसाई, चाहे बौद्ध, यही हाल है। उसकी कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर है । मेरा खयाल है कि इसके लिए जनसाधारण का दोष नहीं है, असल अपराधी तो पंडित-पुरोहित, मुल्ला-मौलवी, पोप और पादरी हैं। वे ही जनसाधारण को बाह्य क्रिया-कांड में उलझाए रहते हैं। इससे उनकी दूकानें चलती हैं। यदि वे भीतर की यात्रा पर जोर देने लगें तो वे बेरोजगार हो जाएंगे । अब, क्योंकि एक मात्र ओशो हैं, जिनका सर्वाधिक जोर ध्यान Jain Education International VIII For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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