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अनेको इतिहासकारो की यह निश्चित मान्यता है कि वेदो के रचनाकाल और आर्य सस्कृति से पूर्व भारत मे जो द्रविड सस्कृति फैली हुई थी वह वस्तुत श्रमण (जैन) संस्कृति ही थी।
प्राचीन काल मे जैन धर्म विदेशो मे भी फैला हुआ था। यद्यपि वर्तमान मे हमे विदेशो मे जैन धर्म का प्रभाव दिखलाई नही देता परन्तु इतिहासकारो को इस तथ्य के प्रमाण उपलब्ध हुए है कि ईसा से पूर्व जैन साधु (श्रमण) लका, इडोनेशिया, तक्षशिला, ईराक, श्याम, फिलस्तीन, मिस्र, यूनान, ईथोपिया, ओकसीनिया, केस्पिया, बल्ख, समरकन्द आदि देशो मे जैन धर्म तथा अहिंसा का प्रचार करते रहते थे। सिकन्दर महान को अपने भारत पर आक्रमण के समय तक्षशिला के पास जो साधु मिले थे वह जैन मुनि ही थे। उन्हीं मुनियो मे से एक कल्याण (कोलिनोस) नामक मुनि को वह वापिस जाते समय अपने साथ अपने देश भी ले गया था। दुर्भाग्यवश रास्ते मे ही सिकन्दर की मृत्यु हो गयी थी। परन्तु कल्याण मुनि युनान पहुंचे थे और उन्होने वहाँ जैन धर्म का प्रचार भी किया था। परन्तु कालान्तर में राजनीतिक परिस्थितियो के कारण इन देशो से जैन धर्म का सम्पर्क टूट गया और फिर जैन धर्म की कठोर चर्या का पालन न कर सकने के कारण वहा पर श्रमणो व जैन धर्म का अभाव हो गया। मध्य एशिया मे अब भी कही-कहीं ऐसे स्थान पाये जाते हैं जिनके निवासियो के आचार पर जैन धर्म का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।
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