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कता, अशान्ति व भ्रष्टाचार फैलता है, जिनके परिणाम सदैव खराब ही निकलते हैं ।
(६) किसी के साथ बलात्कार या इसी प्रकार की अनधिकार कुचेष्टा करना भी हिंसा है। इससे पीडित व्यक्ति को शारीरिक व मानसिक कष्ट पहुँचता है और कभी-कभी उसका सारा जीवन ही नष्ट हो जाता है । वेश्यागमन व परस्त्रीगमन जैसे जघन्य कार्य भी हिंसा की श्रेणी मे ही आते हैं। इन कार्यों से व्यक्ति का धन व स्वास्थ्य नष्ट होता है, परिवार में कलह बढ़ती है, आपस मे वैमनस्य बढता है और कभी-कभी इसके फलस्वरूप हत्याएँ भी हो जाती है । ऐसे कार्यों से समाज मे व्यभिचार की प्रवृत्ति भी बढती है ।
(७) अपनी तृष्णा पर अकुश न लगाकर आवश्यकता से अधिक धन और दूसरी चीजो का सग्रह करना भी हिंसा है । प्रत्येक व्यक्ति का यह प्रतिदिन का अनुभव है कि अपनी आवश्यकता के अनुसार तो व्यक्ति ईमानदारी और उचित साधनो से कमा लेता है, पर अधिक कमाई के लिए वह अनुचित साधनो का सहारा लेता है । इस प्रकार अधिक धन संग्रह करने की प्रवृत्ति से अनुचित कार्यों को बढावा मिलता है और गरीबी अमीरी का भेद बढता है, जिससे वर्ग संघर्ष की परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। इसके अतिरिक्त अनुचित साधनो से कमाया हुआ धन अधिकाश मे फिजूल खर्ची और अनुचित कार्यों - मद्य, मांस, व्यभिचार, जुए इत्यादि मे ही व्यय होता है । इसी कारण अमीरो की सन्तान बहुधा गलत रास्तों पर पड जाती है ।
एक विचारक ने कहा है कि व्यक्ति की तृष्णा कभी पूरी नहीं होती । प्रत्येक व्यक्ति की तृष्णा का गड्ढा इतना
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