Book Title: Maharaj Vikram Author(s): Shubhshil Gani, Niranjanvijay Publisher: Nemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala View full book textPage 7
________________ मेरे अपने विचार कोई भी देश, समाज या धर्म जब पतन के गहन गर्त की और जा रहा होता है महती कृपा रही है. पूर्वकालीन इतिहास की उस गिरे हुए राष्ट्र, समाज और धर्म को ऊपर बहुत ऊपर ऊँचा उठाने में / तत्कालीन समाज के बारे में कोई भी विचारका निश्चय पूर्वक नही कह सकता कि 'हमारा आज का समाज अपने तांही अपने सिद्धान्तो के प्रति तटस्थ है ! यह अवश्य हे समाज में बसने वाले अधीकांश या अल्पांश व्यक्तियों में सिद्धान्तों के प्रति आस्था तो मिलेगी लेकिन कर्म के क्षेत्र में उस अनुसार गति नहीं मिलेगीव्यवहार नहीं मिलेगा। तो आज के एसे संक्रान्ति कालीन युगमें हमें एक एसे तत्त्व की आवश्यकता है जो हमारा प्रतीकत्व करें ! स्वाभाविक हो जाता है प्रेरणाप्रदः प्रतीक को ढूंढने के लिए हमारी निगाह भी हमारे अतीत के स्वार्णिक इतिहास की ओर जाय ! पू.मुनि श्रीनिरंजनविजयजी महाराजश्रीद्वारा मूल संस्कृत से भावानुवादित यह विक्रमचरित्र आप लोगों के हाथ में है / विक्रमचरित्र भारतीय इतिहास के स्वर्णिककाल की एक महान घटना है और महान घटना हम भी कुछ महान् घटित करे इस प्रकार के उत्साह की, तत्त्वको जीवनदायित्री हुआ करती है। . जीवन निरन्तर आगे बढ़ने का नाम है और हरकोई आगे बढना चाहता है, बढने की गति में शैथिल्य हैं अथवा उत्साह यह बढने वाले की शक्ति पर निर्भर है-भावना पर निर्भर है / हर किसी को आगे बढना चाहिये. यह एक आदर्श है और आदर्श बड़े होने ही चाहिये पर आदर्शो को जीवनमें उतारना और निभाना आसान नहीं हुआ करता उसके लिए आगे बढ़ने की क्रियामें जो जीवन का उत्साह दे सके ऐसे तत्त्व का होना आवश्यक हुआ करता है यहि ऐसा तत्त्व मिल जाय तो आदर्शो को निभाना आसान नहीं तो मुश्किल भी नही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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