Book Title: Mahajan Vansh Muktavali
Author(s): Ramlal Gani
Publisher: Amar Balchandra

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Page 6
________________ प्रस्तावना. दर्शाया शिष्य नहीं मिलनेके कारण काल दोषसें यति गुरुओंकी वृद्धि तथा कालदोषसैं अवशेषोमैं विद्याकी न्यूनता हो रही है. - हम धारतेथे वर्तमानमैं साधुनाम धरानेवाले कुछ उन्नती करेगें लेकिन ये तो परस्पर द्वेषापत्तिसैं ग्रसित होते हुये अन्यदर्शनियोंकों सर्वज्ञधर्मकी प्राप्तिकराने किंचित्भी उद्यम नहीं करते अमूल्य समय परस्परके - रागद्वेषमैं व्यतीत करते हैं, यदि शास्त्रार्थ परस्परही करना होतो, शमभावसँ निसल्यपनै करना चाहिये, वैसा नहीं करते, केवल परस्परमैं, कुसंपकी वृद्धि करना यथार्थ नहीं, पकडापक्ष कोई नहीं त्यागता, उननें तो उसको सत्यही मान रखा है, कषायोंकी चोकडी क्षय करनाही, परम पदका सोपान है और जो साधुओंके नामधारी, भाषाकी कहाणियां गीत गानेवाले हैं वे तो व्याकरण काव्य कोश न्यायादिकके अणपढ अन्य दर्शनियोंसे किस प्रकार शास्त्रार्थ कर सक्ते हैं, वे तो यति आचार्योंके प्रतिबोधे हुये, जैन समाजकों अपने. कुयुक्तियोंद्वारा, अपना मंतव्य मनाते, जन्मव्यतीत करते हैं, उन अन पठितों कीये प्रशंसा, डाक्टर हार्मन जे कोवी भी, सम्यतया कर गया के, संस्कृत प्राकृत अन्य २ जैन ग्रंथ बहुतोंके पढनेकी आवश्यक्ता है, इत्यादि, इनोंकी अणपठितताकों देखकर कह गया था, इत्यादि एक वार्ता अद्भुत इस समाजमैं देखी, कोई दुसरे धर्मवाला इनका ठाठ देखने इन समाजके मनुष्यसंग उन मताध्यक्षके शमीप चला जावेतो बैठे हुये, हजार पांचसो गृहस्थ, कहने लगते हैं, संसारसैं पार पाना है तो, श्रद्धा धारलो, इहां धनवान हो जाओगे, तब वह मताध्यक्ष आधिपति कहता है, कुछ जाण पना है, तब सर्वे गृहस्थ कहते हैं, कुछ पूछना हो तो पूछलो, ऐसै अंतरयामी सर्वज्ञ, फेर नहीं मिलेंगे, शंका मनकी निकाल लो, तब जो इन समाजका स्वरूप जानता है, वह तो, कह देता है, मुझे कुछ भी नहीं पूछना है, और जो इन समाजके स्वरूपका, अजाण हो, कोई इनकों जबाब नहीं आवै ऐसी वार्ता पूछ वैठता है, बस उसी समय, उस एक मनुष्यके पीछे वे हजार मनुष्य, कोलाहल मचाते हैं, उसकी बात सुणने नहीं देते और वने जहांतक उसकी आजीविका भंग करते प्राण कष्टतक पहुंचा देते हैं, और जो इनोंकों. मालम होती है के अमुक विद्वान हमारी कथन कसे वार्ताकों जैन सूत्रोंसें, वा, हमारी कुयुक्तियोंकों, न्याय युक्तिसैं खंडन कर्ता है, तब अपने समाजके लोकोंकों प्रथम हीसैं शिक्षा देने लगते हैं, अमुक मनुष्य कुशी लिया है, अपना द्वेषी है, इससे वार्ता करनेसैंही, पाप लगता है, ऐसा सुणते ही, घणीक्षमा तहत्त, दीनबंधु, कृपासिंधु, पृथ्वीनाथकों, घणीखमा, वसवे हियाशून्य, ज्ञानचक्षुरहित,

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