Book Title: Mahajan Vansh Muktavali
Author(s): Ramlal Gani
Publisher: Amar Balchandra

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Page 4
________________ ४ प्रस्तावना. प्रस्तावना, इत्यादि कारणोकों विचारते हैं तो गुण मैंभी अपगुण निकालनेवाले जगत्मैं विद्य-- मान है इस लिये बुद्धिमानों. बुद्ध्यानुसार सत्मार्ग हितावह जो हो उसमैं यथा शक्ति प्रवर्त्तना, लोकतो चढेकों भी हसते हैं और प्यादलकों भी हसते हैं सर्वजनकी एक सम्मति हुई न होगी इति यतः तथापिक्रियतेग्रंथशंति यद्यपि दुर्जना, नहि दस्युभयाल्लोको दैन्यवानिह वर्त्तते १ [ अर्थ ] ये श्लोक वैद्यजीवनमैं लिखा है तो भी ग्रंथ करता हूं यद्यपि दुर्जन जन हैं यथा चौरोके भयसै संसारके लोक क्या दीन दलिद्री वणवै ठेगें, कदापि नहीं, यतः खलः सर्षपमात्राणि परछिद्राणि पश्यति ॥ आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नतिन पश्यति २[ अर्थ ] ये श्लोक चाणक्य ब्राह्मण साहानशाहचंद्रगुप्तको कथन करा है, दुष्ट मनुष्य सरसवप्रमाणभी परछिद्र देखते हैं अपणा दुर्गण बिल प्रमाणकों देखता हुआ भी नहीं देखता २, .. इसलिये बुद्धिमत्ता वह कहाती है यदि किसीनें उपदेश देते दुगुर्गोको त्यागना बतलाया तो वणे जहांतक अपना वा अपने समाजको सुधारनेका प्रयत्न करै यदि दुर्गुण नहीं त्यागा जावै पूर्वकर्मयोगसैं तो फेर उपदेश दाता ऊपर द्वेषभाव धारण करना बुद्धिमत्ताका कार्य नहीं कलियुगमैं सत्यवक्ता पना किसी पुण्यवंत दीर्घदृष्टि न्यायवंतकोंही अछा लगता है, बाकी तो जैसैं सच्च बोले बालकनैं अपणी वैधव्य, माताकों कहा हे माता, पिता तो मरगया, तैनैं ये सुक्ष्म २ का जल क्यों सारा है वस तत्काल माता क्रोधातुर हो मारने दोडी तब भागते हुये सच्चबोले कहा सत्य. कहै, मांमारे, यदि मनको रुचता असत्य गुण भी किसीका वर्णन करो तो बड़े लोक प्रशन्न होते हैं क्योंकी आज संसारमैं खुसामदी ताजा रुंजगार हो रहा है लेकिन चर्पट पंजरीमैं स्वामी शंकरनैं कहा है यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं नाचरणीयं २ इस प्रकार जैनधर्मके शक्रस्तवके अनंतर प्रणिधान दंडक भी लिखा है लोग विरुद्धच्चाओ, अर्थात् जो कार्य शुद्ध है यदि लोक विरुद्ध है तो नहीं आचरण: करना पुनः ऐसा भी है शत्ये नास्ति भयंक्वचित् . जैनधर्मपर आक्षेप करनेवालोंकों निरुत्तरकर्ता खरतर गच्छके श्वेतांबराचार्य उपाध्याय समय २ पर विजयकर्ता होते रहै, विक्रमशीले शताब्दी में श्री जिनचंद्रसूरिः बादसाह जहांगीरके सन्मुख मसूरपठाणकों धर्म बाद मैं जयकरा, जिनआज्ञाके लोपक निन्हवोंका पराजय करा, खरतर गच्छपर आक्षेप करनेवाला धर्मसागरजी तपागच्छीको, पाटणनगरगुजरातमै ८४ गणके उपाध्याय वाचकादि मनिमंडल समक्ष.. शास्त्रार्थ करने बुलाया लेकिन असत्यवादी होनेके कारण आये नहीं, केइ दिन सभा:

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