Book Title: Life ho to Aisi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 103
________________ गूंथ सकती है, लेकिन बनाने का काम वे ख़ुद ही करते हैं । जिस घर में ऐसे संस्कार होते हैं वहीं लक्ष्मी का निवास होता है, वही घर स्वर्ग होता है । जिस घर में चार बेटे-बहू हों फिर भी सास को ख़ुद खाना बनाना पड़े तो यही कहना होगा कि माता-पिता, दादा-दादी अपने बच्चों को ठीक ढंग से संस्कारित नहीं कर सके। उत्तम माता-पिता वे नहीं होते जो संतान को जन्म देते हैं या उन्हें संपत्ति प्रदान करते हैं। उत्तम माता-पिता वे होते हैं जो अपनी संतानों को संस्कार देते हैं। ये संस्कार ही तो परिवार की पहचान बनते हैं, उसकी कुलीनता की पहचान बनेंगे। अन्यथा आप में और उनमें क्या अंतर है, जो अपशब्दों का प्रयोग करते हैं। आप पढ़े-लिखे होकर भी धूम्रपान करते हैं तो आपमें और अनपढ़ में क्या अंतर रह गया. फिर आपके शिक्षित होने का क्या अर्थ? आप जानते हैं फिर भी गलत काम करते हैं। मैं संत नहीं होता और कोई ग़लत काम करता तो शायद माफ़ कर दिया जाता। लेकिन अब संन्यासी होकर ग़लत काम किया तो कभी भी माफ़ नहीं किया जाऊँगा। . __ आइए, हम अपने अंदर अच्छे गुणों का विकास करें। खाली बोरी को कभी खड़ा नहीं किया जा सकता. उसे बिछाया जा सकता है. पर खड़ा करने के लिए उसमें कछ-न-कछ भरना पडेगा। जीवन को खड़ा करने के लिए हमें अच्छे गुण जीवन के थैले में भरने होंगे। हम अच्छे संस्कार और अच्छे व्यवहार के मालिक बनें । मैं किसी नगर में था। वहाँ एक संस्था के ट्रस्टियों की मीटिंग थी। उसमें दो लोगों को विशेष रूप से आमंत्रित किया गया, जिसमें से एक अति संपन्न, तो दूसरे साधारण से। जो संपन्न थे उनकी फ्लाइट दोपहर में एक बजे पहुँच गई, वे हमारे पास आ गए। दूसरे महानुभाव की ट्रेन लेट थी सो वे दो बजे पहुंचे। जल्दी पहुँचने वाले व्यक्ति हम लोगों के साथ बातचीत कर रहे थे कि उन्होंने देखा कि साधारण-सा लगने वाले वे दूसरे सदस्य अपना सामान उठाए अंदर प्रविष्ट हो रहे हैं, वे तुरन्त उठे, आगे बढ़े और उनका सूटकेस ख़ुद ने ले लिया। वह संपन्न व्यक्ति ट्रस्ट के अध्यक्ष थे और साधारण व्यक्ति सचिव। अध्यक्ष की आयु होगी लगभग साठ-बासठ वर्ष और सचिव पैंतीस-सैंतीस वर्ष के रहे होंगे। लेकिन जैसे ही मैंने यह दृश्य देखा मुझे महसूस हुआ इसे कहते हैं कुलीनता। यही है संस्कार और गौरव करने योग्य बात। मैं व्यक्ति के ऐसे ही सौम्य और निर्मल व्यवहार में विश्वास रखता हूँ और मानता हूँ कि ऐसा व्यक्ति ही आदरणीय है। संन्यास लेने से ही कोई संत नहीं बन जाता। उसकी सोच, उसका नज़रिया, उसका आचरण ही व्यक्ति को संत बनाते हैं। हर व्यक्ति संन्यास तो नहीं ले सकता लेकिन वह घर में रहते हुए भी संत तो ज़रूर बन सकता है। यह होगा केवल अपने व्यवहार को बेहतर बनाने से। हम देखें कि किन उपायों से अपने व्यवहार को बेहतर बना सकते हैं। इसका पहला सूत्र है - अपने जीवन की गाड़ी में विनम्रता का ग्रीस लगाइए ताकि वह आराम से चल सके। अपने जीवन में किसी भी बात का अभिमान न रखें - न धन का, न तन का, न रंग-रूप का, न बल और बुद्धि का । जो आज अधिक संपन्न LIFE 102 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146