Book Title: Life ho to Aisi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 133
________________ भेद नहीं होता । मूल्य हमेशा ज्योति का ही होता है, दीयो का नहीं; महत्त्व उसी धर्म का होता है जो मानवता को सही रास्ता दिखाए, उस धर्म का नहीं जो इंसानियत के बँटवारे करे। जिस आदमी की नज़र दीये की माटी पर केंद्रित हो गई, वह माटी- माटी हो गया, मृण्मय हो गया और जिसकी नज़र लौ पर टिक गई, वह ज्योतिर्मय हो गया, चिन्मय हो गया । धर्म मानवता के लिए वरदान है, लेकिन धर्म का मर्म आदमी के हाथ से छिटक गया है। धर्म की मशालों की लौ बुझ गई है और मशालों के नाम पर डंडे रह गए हैं। वे डंडे अब लड़ने-लड़ाने के सिवा कुछ काम नहीं आने वाले हैं। भले ही कोई धर्म यह मानता हो कि यह सारा जहां अल्लाह ने बनाया है, मगर किसी कोने से आवाज गूँज जाए कि 'इस्लाम खतरे में है', तो अफरा-तफरी मच जाती है, मारकाट शुरू हो जाती है । भले ही कोई व्यक्ति 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की प्रार्थना कर ले, मगर जिस दिन हिंदुत्व की हिलोर उठी, तो सारी प्रार्थनाएँ एक किनारे रह जाएँगी और रक्त की नदियाँ बह चलेंगी। लोगों को धर्म से प्यार कम है, अपने-अपने पंथों और संप्रदायों से ज़्यादा लगाव है। जैसे एक माँ-बाप पाँच संतानें आपस में बँट जाया T करती हैं, ऐसे ही समाज बट चुका है, धर्म के बँटवारे हो गए हैं। दुनिया में जितने भी धर्म हैं, उनके सैकड़ों अवांतर भेद हैं, सैकड़ों परंपराएँ हैं, सैकड़ों रूप-रूपाय हैं और सैकड़ों ही विधि-विधान हैं। क्या कोई मनुष्य ऐसा है, जो यह कह सके कि उसका धर्म सत्य है ? धर्म को सत्य बताना सरल है, सत्य 'धर्म का रूप देना कठिन है। सत्य का पक्ष ही मेरा पक्ष है, व्यक्ति का यही स्वर होना चाहिए । इंसानियत को बाँटने का जितना बड़ा पाप इन कथित धर्मों ने किया है, उतना और कोई नहीं कर पाया है। धर्म का उद्देश्य सारी इंसानियत को एक मंच पर लाकर खड़ा करना था, मगर हम इसमें नाकाम रहे। मनुष्य के अन्तर्मन में पलने वाली राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं के चलते धर्म आपस में बाँट दिया गया और इंसानियत भी टुकड़े-टुकड़े हो गई। प्रेम और शांति के जिस संदेश को लेकर धर्म ने जन्म लिया, हमने अपनी संकीर्ण सोच, संकीर्ण नज़रिये के कारण उसका अपने ही हाथों गला घोंट दिया। किसी के हाथ में धर्म का हाथ लग गया, किसी के हाथ में पाँव, तो किसी के हाथ में उसका सिर । सारे लोगों ने अपने-अपने हाथ में जो भी लगा, उसे खींचना शुरू किया। सारे अंग अलग हो गए और उसके पीछे मृत देह रह गई । धर्म ही नहीं बँटा है, धर्म के साथ समाज और परिवार भी बँट गए हैं। धर्म हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई के बँटवारे तक ही सीमित रहता तो ठीक था, किंतु अब तो विभाजन इससे कहीं ज़्यादा ही बढ़ गया है। हिंदू बँटकर वेदांती हो गए, आर्य समाजी हो गए; ईसाई कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट हो गए; मुसलमान शिया और सुन्नी हो गए; जैन श्वेताम्बर और दिगम्बर हो गए। इतने में भी शायद बात नहीं बनी और फिर सौ-सौ रूपान्तरण हो गए। अगर केवल जैनों को ही ले लिया जाए तो वे श्वेताम्बर और दिगम्बर तक ही सीमित न LIFE 132 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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