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का आनंद पा सकते हैं।
हम केवल बाहर के तौर-तरीकों में न उलझें, वरन् धर्म की मूल आत्मा से जुड़ें। बाहर के तौर-तरीके और रूप-रूपाय बड़े विचित्र और बड़े निराले हैं। कुछ परंपराएँ कहती हैं कि जटा बढ़ाने में धर्म है, तो कुछ कहती हैं कि कटाने में धर्म है। जो बढ़ाने में धर्म मानती हैं, उनमें भी कुछ कहती हैं कि चोटी मोटी होनी चाहिए, कुछ कहती हैं पतली होनी चाहिए। जो चोटी काटने में विश्वास रखते हैं, उनमें से कुछ कहते हैं कि बालों को नोच-नोचकर उतारने में ही धर्म है, कुछ इसका विरोध भी करते हैं। धर्म आखिर कहाँ है ? क्या बालों को बढ़ाने, घटाने या कटाने में धर्म का स्वरूप समाहित है ?
व्यक्ति ने जटा और चोटी की तरह ललाट के तिलक को लेकर, मुँहपत्ती, दाढ़ी, मूंछ, माला को लेकर सौ-सौ रूप-रूपाय खड़े कर लिए हैं। कपड़ों पर ध्यान दें तो कोई कहते हैं कि कपड़े काले रखो; कोई कहते हैं कि पीले रखो; कोई कहते हैं कपड़े केसरिया हों, तो कोई कहते हैं कि कपड़े सफ़ेद हों । दिगम्बर तो हर कपड़े से परहेज़ करते हैं। किसे मानें और किसे न मानें ? भोजन में भी कच्ची रसोई और पक्की रसोई का आग्रह । उसमें भी कुछ कहते हैं कि जब मेरा खाना बने, तब तुमने वहाँ पाँव भी रख दिया तो खाना खाने के काबिल न रहेगा। महावीर जैसे लोग तो चांडालों को भी अपनी धर्म-सभा में संन्यास दे दिया करते थे और हम राह चलते किसी हरिजन को छूते हुए भी सोचते हैं ।
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मैं जब किसी भगवान महावीर के मंदिर में जाता हूँ, तो वहाँ लिखा मिलता है जैन दिगम्बर तारणपंथी या जैन श्वेतांबर तपागच्छ या जैन श्वेतांबर खरतरगच्छ मंदिर । अब अगर महावीर मंदिर या जिन मंदिर कहो तो बात समझ में आती है, लेकिन जैन मंदिर या हिन्दू मंदिर की बात समझ से परे है । उसमें भी यह आग्रह कि यह श्वेताम्बर, वह दिगम्बर, यह तपागच्छ, वह खरतरगच्छ । मंदिर पर तो भगवान का स्वामित्व होता है, लेकिन हमने अपने पंथों का मालिकाना हक उस पर थोप दिया है। अब तो लक्ष्मी या विष्णु के मंदिर नहीं, 'बिड़ला मंदिर' बनते हैं । सब अपने-अपने नामों के मंदिर बना रहे हैं, सब अपनी ही पूजाआराधना में लगे हैं, परमात्मा की फ़िक्र ही किसे है ? ' परमात्मा' तो 'क्यू' में सबसे पीछे चला गया है और सबसे आगे हम आ चुके हैं। यह सब ईगो का झमेला है। आप ईगो को कहिए गो और फिर कीजिए ईश्वर की
इबादत ।
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मानता हूँ धर्म के बाहरी रूपों और तौर-तरीकों का अपना मूल्य है, लेकिन असली मूल्य तो धर्म की आत्मा का है। लिंग, वेष, रूप-रूपाय ये सब तो पहचान के लिए हैं, बाकी मूल तत्त्व तो अच्छे गुणों को अपने जीवन में जीने से है । यह बात सही है कि ईसाई और मुसलमान दोनों ही कट्टर कौमें हैं । आप चाहें तो आप भी कट्टर बन सकते हैं, पर कोरे पंथबाजी और बयानबाजी के कट्टर न बनें। जीवन में जिन उसूलों को अपनाया है उन उसूलों पर अडिग रहने की कट्टरता अपनाएँ। आज मुसलमान जिस तरह से सौ काम छोड़
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