Book Title: Life ho to Aisi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 136
________________ आता है कृष्ण का । कृष्ण धर्म का दूसरा पगथिया है। कृष्ण कर्म की प्रेरणा है। जीवन का निर्माण और विकास कैसे किया जाए, कृष्ण और उनकी गीता वह कर्म सिखाते हैं । बगैर कृष्ण के कर्म अधूरा है। जीवन में जबजब भी विफलताओं का सामना करना पड़े तब-तब कृष्ण डूबते के लिए पतवार का सहारा बनते हैं। उसका खोया हुआ आत्मविश्वास उसे लौटाते हैं । उसे कर्म की ओर प्रेरित करते हैं और यह जताते हैं कि तुम्हारा कर्म ही तम्हारा भाग्य विधाता है। महावीर मोक्ष का नाम है : महावीर संसार नहीं है। महावीर मुक्ति है। राम और कृष्ण संसार हैं, जबकि महावीर निर्वाण है। राम और कृष्ण जीवन को सुधारते हैं। महावीर मृत्यु को सुधारते हैं । मृत्यु आदमी की परीक्षा है। परीक्षा ही यह साबित करती है तुमने सालभर कैसे पढ़ाई की। जो परीक्षा में फेल हो गया। वह जिंदगी की पाठशाला में फेल हो गया। जो परीक्षा में पास हो गया. वह जिंदगी की बाज़ी मार गया। राम और कृष्ण तो ब्रह्मचर्य और गृहस्थ-आश्रम हैं। जबकि महावीर और बुद्ध वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम हैं । घर में कैसे जीना चाहिए राम से सीखो। केरियर कैसे बनाना चाहिए कृष्ण से सीखो, पर जीवन को कैसे जीना चाहिए महावीर से सीखो। राम शुरुआत है, कृष्ण बीच का पड़ाव है, महावीर मंज़िल है। अगर इन तीन में से किसी एक को भी अलग कर दिया तो जीवन की यात्रा रसपूर्ण और आनंदपूर्ण न बन पाएगी। अपनी सोच और अपने नज़रिए को थोड़ा-सा महान् बना लो, तो जीवन को जीने का मज़ा ही अनेरा हो जाएगा। इनसे भी कुछ सीखो तो ये हमारे हैं और न सीखो तो केवल इनका नाम जपने से भी कुछ नहीं होने वाला है। मैंने इन लोगों से कुछ सीखा है इसीलिए यह सब अनुरोध कर रहा हूँ। इन लोगों के जीवन से कुछ सीखने जैसा है इसीलिए ये हमारे वर्तमान के लिए उपयोगी हैं। बाक़ी राम ने अच्छा जीवन जिया इससे राम को कुछ मिला होगा। हमें क्या मिलेगा? कृष्ण ने कर्म किया तो वे कर्मवीर बने । हम कर्म न करेंगे तो क़िस्मत हमारी चाकरी करने से रही। महावीर ने महान् त्याग किया तो वे महावीर बने। हम त्याग करने की बजाए केवल पानी में त्याग की लकीरें खींचते रहेंगे, तो मुझे तो इसमें कुछ आणी-जाणी' नहीं लगती। एक बहुत बड़ी महिला न्यायाधीश ने मुझसे एक बार कहा – गुरुदेव, जहाँ तक मुझे याद है मैंने अपनी जिंदगी में एक पैसे की भी रिश्वत नहीं ली। मैंने अपने बच्चों को कभी नहीं डाँटा । मैं अपने नौकरों के साथ भी सलीके से पेश आती हूँ। अगर घर के बूढ़े-बुजुर्ग मुझे डाँट दे, तो मैं उसे सहजता से स्वीकार कर लेती हूँ, पर मैं बहुत व्यस्त हूँ। मेरी बहुत इच्छा होती है कि मैं मंदिर वगैरह जाऊँ और कुछ धर्म करूँ, पर क्या करूँ, धर्म करने का वक़्त नहीं निकाल पाती।' ___मैंने उस जज से कहा – 'कि जो आप अपने जीवन में जी रही हैं, धर्म का आचरण उससे अलग नहीं होता। धर्म हमें यही तो सिखाता है कि औरों के प्रति प्रेम और सहानुभूति रखो; अपने जीवन में नैतिकता के ऊँचे मापदंड रखो; रिश्वत को भी चोरी के समान पाप मानो।' माना कि वह महिला जज धर्म की दो-चार MITEEN 135 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only

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