________________
प्राक्कथन
लगभग ७ वर्ष पूर्व मैंने श्री पं० बाबूलालजी फागुल्लके माध्यमसे श्री पं० बाबूलालजी गोयलीय अगासके विशेष अनुरोधवश श्री लब्धिसारके सम्पादनका कार्य हाथ में लिया था। मैं चाहता था कि इस कार्यको यथासम्भव शीघ्र सम्पन्न करके श्री जयधवलाके अवशिष्ट रहे कार्यको सम्पन्न करने में लगें, ताकि दूसरे कार्योंकी ओर भी ध्यान दे सकूँ। किन्तु जब इच्छा और होनहारमें सुमेल नहीं होता तब चाहकर भी अप्रशस्त कार्यको तो छोड़िये प्रशस्त कार्य भी सम्पन्न नहीं हो सकता । होनहार वस्तुगत योग्यता है । प्रयत्न और वाह्य योग उसीका अनुसरण करते हैं यह सहज सिद्ध नियम है। प्रधानतासे किसी एककी अपेक्षा कथन किया जाय यह दूसरी बात है।
मुद्रित ग्रन्थकी दृष्टिसे १४ फार्म तकका काम सम्पन्न करते-करते मुझे स्थायीरूपसे चारपाईकी शरण लेनी पड़ी है । उससे पूरी तरह छुटकारा अभीतक नहीं मिल सका है। फिर भी मेरा साहित्यिकजीवन स्थायी होनेसे ऐसी अवस्थामें भी यथासम्भव मैं २-३ वर्षसे इस कार्य में पुनः योगदान करने लगा है। उसीका परिणाम है कि अब शीघ्र ही लब्धिसार परमागम स्वाध्यायके लिये सुलभ हो जायगा ।
मुझे सूचित किया गया था कि संस्कृत वृत्ति और सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका टीका सहित ही इसका सम्पादन होना है । आप जहाँ भी आवश्यक समझें मूल विषयको स्पष्ट करते जाये और श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने किस मूल सिद्धान्त ग्रन्थके आधारसे इसकी संकलना की है उसे भी अपनी टिप्पणियों द्वारा स्पष्ट करते जाये । यह मेरी उक्त ग्रन्थके सम्पादनकी रूपरेखा है। अतः मैंने उक्त ग्रन्थके सम्पादनमें इस मर्यादाका पूरा ध्यान रखकर ही इसका सम्पादन किया है।
ऐसा नियम है कि प्रकाशित या अप्रकाशित जिस किसी ग्रन्थका सम्पादन किया जाय, उसका सम्पादन अनेक हस्तलिखित प्रतियोंके आधारसे करना ही उपयुक्त होता है। उसके बिना यह विश्वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इसके सम्पादनमें यथासम्भव कोई त्रुटि नहीं रहने पाई है। किन्तु इसके लिये मैं प्रयत्न करनेपर भी अन्य हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध नहीं कर सका। अतः जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था कलकत्तासे प्रकाशित प्रतिके आधारसे ही इसका सम्पादन हुआ है। फिर भी कहीं-कहीं मूल गाथाके पाठमें कुछ परिवर्तन किया गया है । कुछ पाठ ये हैं
सं० वृ०
स०च०
गाथा मूल पाठ ६७ उदरिय
उदीर्य ६९ उक्कट्ठिद,, उत्कर्षित
मुद्रित पाठ ओदरिय अवतीर्य ओकट्टिद अपकर्षित
अवतीर्य
उतरि
*
अपकर्षण भागहार अपकर्षिते
अपकर्षण भागहार अपकर्षण
७३ उक्कट्ठिदम्हि
अपकषिते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org