Book Title: Kundakundacharya ke Tin Ratna
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 29
________________ २८ कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न उसमें स्थिति है। उसे पढ़ते समय हमें वेदान्तके श्रवण, मनन और निदिध्यासनकी याद आ जाती है। यह कहे बिना नहीं रहा जाता कि कुन्द. कुन्दाचार्य जैनसिद्धान्तमें गभित स्थितिको प्रकट करते हैं अथवा सम्पूर्ण करते हैं। जीवात्माका मूलस्वरूप नित्य शुद्ध-बुद्ध स्वीकार कर लिया तो फिर बीचमें दिखाई पड़नेवाले बन्धनको अविवेक भ्रम ही कहना पड़ेगा। कुन्दकुन्दाचार्यके ग्रन्थोंमें जो विशेष वस्तु है, वह यही है। बाकी सारा सैद्धान्तिक निरूपण तथा परिभाषा वगैरह अन्य जैन सिद्धान्तग्रन्थोंसे खास भिन्न नहीं है। इतना ही नहीं, इसी मालामें श्वेताम्बरोंके आगमग्रन्थोंमें-से अनुवादित ग्रन्थोंसे परिचित पाठकोंको इस विषयमें कोई नवीनता या विशेषता नहीं दिखाई देगी। इसमें जैन भिक्षुके धर्मोका और चर्याका जो निरूपण है वह भी अन्य श्वेताम्बर ग्रन्थोंके समान ही है। अतएव इन सब विषयोंका उल्लेख करनेकी कोई आवश्यकता नहीं रहती। एक आचार्य और सन्त पुरुषके रूपमें कुन्दकुन्दाचार्यको महत्ता पाठकके मनमें अंकित करनेकी खास आवश्यकता है। बादके दिगम्बर साहित्य में उनके लिए जिस मान और भक्तिभावके साथ उल्लेख किये गये हैं, उन्हें देखनेवाले ही उनकी कल्पना कर सकते हैं। दूर दक्षिण में, लम्बे समयसे, मूल संघसे बिछुड़े हुए संघको जिस आचार्यने ज्ञान और दर्शन प्रदान किया तथा चारित्रका मार्ग सुलभ बना दिया, उस आचार्यके विषयमें उस संघके लोग तो कवि वृन्दावनदासजीके शब्दोंमें यही कहेंगे : "विशुद्ध बुद्धि वृद्धिदा प्रसिद्ध ऋद्धि सिद्धिदा, हुए न, हैं न, होहिंगे मुनिंद कुन्दकुन्द से।"

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