Book Title: Kundakundacharya ke Tin Ratna
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 40
________________ द्रव्यविचार ३९ आदिका विभाग नहीं किया जा सकता । यह नाप पुद्गलद्रव्योंके परिवर्तन से नापा जाता है, इसीलिए काल पराधीन कहलाता है । ( पं० २३-६ ) व्यावहारिक काल-गणना यद्यपि जीव और पुद्गलके परिणमनपर ही आधार रखती है, परन्तु कालद्रव्य स्वयं, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जीव और पुद्गलके परिणमनमें कारणभूत है । व्यवहार-काल क्षणभंगुर है और कालद्रव्य अविनाशी है ( पं० १०० ) काल द्रव्य प्रदेशरहित है अर्थात् एक-एक प्रदेशरूप है । पुद्गलका एक परमाणु आकाश एक प्रदेशको लाँघकर दूसरे प्रदेशमें जाता है, तब कालाणुका समय रूप पर्याय प्रकट होता है । यह समय- पर्याय उत्पन्न होता है और नष्ट भी होता है, पर उससे पहले और उसके पश्चात् भी जो द्रव्य कायम रहता है, वह काल द्रव्य है' । ( प्र०२, ४३, ४७, ४९ ) ५. पुद्गल - पुद्गलद्रव्य चार प्रकारका है - स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु । पुद्गलका सम्पूर्ण पिण्ड स्कन्ध कहलाता है | स्कन्धका आधा भाग स्कन्धदेश, स्कन्धदेशका आधा भाग स्कन्धप्रदेश और जिसका दूसरा भाग न हो सके, ऐसा निरंश अंश परमाणु कहलाता है । ( पं० ७४-५ ) 1 १. जिन द्रव्यों के बहुत प्रदेश अर्थात् विस्तार होता है उन्हें तिर्यक्प्रचयवाला कहते हैं । प्रदेशोंके समूहका नाम तिर्यक्प्रचय है । प्रदेशों में विस्तार देशकी अपेक्षा है | किन्तु ऊर्ध्वप्रचय अर्थात् कालमें क्रमसे व्याप्त होना, क्रमपरम्परा है। इसमें देशकी अपेक्षा नहीं, किन्तु कालिक क्रमकी अपेक्षा है । कालके अतिरिक्त द्रव्य बहुप्रदेशी होनेसे देश में विस्तृत है तथा क्रमिककालमें भी विस्तृत है पर कालद्रव्य स्वयं देशव्यापी नहीं है वह क्रमिक समय परम्पराओं में व्याप्त है । अन्य द्रव्योंके ऊर्ध्व प्रचयमें भी निमित्त कारण काल होता है, उपादान कारण नहीं | अपने ऊर्ध्वं प्रचयमें काल निमित्त भी है तथा उपादान भी ।

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