Book Title: Kundakundacharya ke Tin Ratna
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 64
________________ द्रव्यविचार बन्ध नहीं होता है। जिस विरत पुरुषको मानसिक, वाचिक या कायिक प्रवृत्तिमें पापभाव या पुण्यभाव नहीं होता, उसे सदा 'संवर' है। उसे शुभ या अशुभ कर्मका बन्ध नहीं होता। (पं० १४०-३ ) निर्जरा-संवरका आचरण करनेसे नवीन आनेवाले कर्म रुक जाते है; पर जबतक पुराने बँधे हुए कर्मोको हटाकर साफ नहीं कर दिया जाता, तबतक आत्मा शुभ या अशुभ भाव प्राप्त करता ही रहता है और इन भावोंके कारण नवीन कर्मोंका बन्धन होता रहता है। उन बँधे हुए कर्मोंको हटा देना - आत्मासे पृथक कर देना निर्जरा है। जो मनुष्य संयम-द्वारा आनेवाले नवीन कर्मोको रोक देता है और ध्यानयोगसे युक्त होकर विविध प्रकारके तपोंका आचरण करता है, वह अवश्य ही अपने कर्मोंकी निर्जरा कर डालता है। जो आत्मार्थी पुरुष संयमयुक्त होकर, ज्ञानस्वरूप आत्माको जानकर सदैव उसका ध्यान किया करता है, वह निस्सन्देह कर्म-रजकी निर्जरा करता है । जिसमें राग, द्वेष या मोह और मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति नहीं है, उसीको शुभाशुभ कर्मोको दग्ध कर देनेवाली ध्यानमय अग्नि प्राप्त होती है। योग अर्थात् मन, वचन और शरीरके व्यापारसे कर्म-रजका बन्ध होता है, योग मन-वचन-कायकी क्रियासे होता है । बन्ध आत्माके अशुद्ध भावोंसे होता है और भाव प्रिय एवं अप्रिय पदार्थोंमें रति, राग और मोहयुक्त होता है। आठ प्रकारके कर्मोंके बन्धका कारण मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग है। इनका भी कारण रागादि भाव है। जिसमें रागादि भाव नहीं है उसे बन्ध भी नहीं होता। रागादि १. (१) ज्ञानावरण - ज्ञानको आवृत करनेवाला, ( २ ) दर्शनावरण - दर्शनको प्रावृत करनेवाला, (३) वेदनीय - सुख-दुःखका अनुभव करनेवाला, (४) मोहनीय - दर्शन एवं चारित्रको मूढ़ करनेवाला, (५) आयु - आयुष्य निश्चित करनेवाला, (६) नामकर्म - गति, आकृति, आदि उत्पन्न करनेवाला, (७ ) गोत्रकर्म - प्रशस्त या अप्रशस्त कुलमें जन्मका कारण, (८) अन्तराय - दान, लाभ आदिमें विघ्न डालनेवाला कर्म।

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