Book Title: Kundakundacharya ke Tin Ratna
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 78
________________ पारमार्थिक दृष्टिबिन्दु ७७ यह सब भी जीवके नहीं है, क्योंकि यह सब जड़-पुद्गल-द्रव्यके परिणाम है । यह सब भाव व्यवहार-दृष्टिसे जीवके कहलाते हैं। इनके साथ जीवका क्षीर-नीरके समान सम्बन्ध है। जैसे क्षीर और नीर एक-दूसरेसे मिले हुए दिखाई देते हैं, फिर भी क्षीरका क्षीरपन नीरसे जुदा है; इसी प्रकार यह सब भाव जीवसे भिन्न हैं। कारण यह है कि जीवका बोधरूप गुण जड़ भावों तथा जड़ द्रव्योंसे अलग है। जिस रास्तेपर लुटेरे सदा लूटते रहते हैं, उसके विषयमें व्यावहारिक लोग कहते हैं-'यह रास्ता लूटा जाता है।' यद्यपि रास्ता नहीं लूटा जाता। इसी प्रकार जीवमें कर्म और नोकर्मका वर्ण देखकर व्यवहारसे कहा जाता है कि यह जीवका वर्ण है। इसी प्रकार गन्ध और रस आदिके सम्बन्धमें समझना चाहिए। संसारस्थ जीवोंमें ही वर्णादि पाये जाते हैं, संसारप्रमुक्त जीवोंमें यह सब कुछ नहीं रहता। संसार अवस्थामें भी यह वर्ण आदि व्यवहार-दृष्टिसे ही जीवके हैं, परमार्थ दृष्टिसे नहीं । संसार अवस्थामें भी वर्ण आदि भाव यदि वास्तवमें जीवके माने जायें तो संसारस्थ जीव वर्णादि-युक्त ठहरेगा; और वर्ण आदिका होना जड़-पुद्गल-द्रव्यका लक्षण है। फिर इन दोनोंमें भेद ही नहीं रहेगा। ऐसी दशामें निर्वाण-प्राप्त जीव भी पुद्गल द्रव्यसे अलग कैसे हो सकेगा ? अतएव क्या सूक्ष्म और क्या स्थूल सभी देहोंके पुद्गलमय जड़कर्मसे उत्पन्न होनेके कारण व्यवहारदृष्टिसे ही जीव कहा जा सकता है । (स० ४४-६८) ३. कर्ता और कर्म कर्मबन्धका प्रकार - अज्ञानी जीव जबतक आत्मा और क्रोधादि विकारों ( आसव ) के बीच अन्तर नहीं समझता, तबतक वह क्रोधादिमें ज्यों-ज्यों कम होते जाते हैं, त्यों-त्यों गुण अपने शुद्ध स्वरूप में प्रकट होते जाते हैं। शुद्ध स्वरूपकी प्रकटताकी न्यूनाधिकता ही 'गुणस्थान' कहलाती है। गुणस्थान चौदह हैं।

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