Book Title: Kundakundacharya ke Tin Ratna
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 79
________________ कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न प्रवृत्ति करता है । इस कारण कर्मोंका संचय होता है । सर्वज्ञोंने जीवको कर्मोंका बन्धन उसी प्रकार कहा है । परन्तु जब जीवको आत्मा और क्रोधादि विकारोंके बीच भेद मालूम होने लगता है, तब उसे कर्मका बन्ध नहीं होता । क्योंकि जीव जब विकारोंकी अशुचिता ( जड़ता ), विपरीतता, अध्रुवता, अनित्यता, अशरणता तथा दुःखहेतुता जान लेता है, तब उनसे निवृत्त हो जाता है । वह समझने लगता है - मैं अद्वितीय हूँ, मैं शुद्ध हूँ, मैं निर्मल हूँ - तथा ज्ञान-दर्शनसे पूर्ण हूँ, अतएव इन शुद्ध भावों में स्थित तथा लीन होकर मैं समस्त विकारोंका क्षय करूँ । ( स० ६८-७४ ) आत्मा कर्मों के परिणामका तथा नोकर्मोंके परिणामका कर्त्ता नहीं है, ऐसा जो जानता है, वही ज्ञानी है । विविध प्रकारके जड़ भौतिक कर्मों तथा उनके फलको जान लेनेके पश्चात् ज्ञानी पुरुष पर द्रव्योंके रूपमें स्वयं परिणत नहीं होता, उन्हें ग्रहण नहीं करता और न तद्रूपमें उत्पन्न होता है । क्योंकि वह अपने अनेकविध परिणामोंको भिन्न समझता है । ( स० ७५-९ ) ७८ 1 कर्मबन्धके कारण - अनादि काल से अपने साथ बँधे हुए मोहनीय कर्मके कारण, वस्तुतः शुद्ध एवं निरंजन जीव, मिथ्यात्व, अज्ञान तथा अविरतिभाव इन तीन भावोंमें परिणत होता आया है । सामान्यतया मिथ्यात्व, अविरति कषाय और योग, यह चार ही कर्मबन्धके कारण कहलाते हैं । अतत्त्वमें श्रद्धा और तत्त्वमें अश्रद्धा होना मिथ्यात्व है । विषय- कषायसे अविरमण - अनिवृत्तिको अविरति या असंयम कहते हैं । क्रोधादिसे होनेवाली जीवको कलुषता कषाय कहलाती है । और मन, चचन, कायकी हेय एवं उपादेय शुभाशुभ प्रवृत्तिमें जो उत्साह है, वह योग कहलाता है । इन सबके कारण कर्म रूपमें परिणत होने योग्य पुद्गलद्रव्य ( कार्मण जातिके पुद्गल ) ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मोंके रूपमें परिणत होकर जीवके साथ बंध जाते हैं । और इन कर्मोके बन्धके कारण जीव फिर अज्ञान आदि विपरीत भावों में परिणत होता है । ( स०

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