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द्रव्यविचार
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आत्मा जहाँतक देहादि विषयों में ममता नहीं त्यागता तबतक पुनः पुनः नवीन नवीन प्राणोंको धारण किया करता है, परन्तु जो जीव इन्द्रियों, क्रोधादि विकारों तथा असंयम आदिको जीतकर अपने शुद्ध चैतन्य-स्वरूपका ध्यान करता है, वह कर्मोंसे बद्ध नहीं होता । फिर प्राण' उसका अनुसरण कैसे कर सकते हैं ? ( प०२, ५३ - ९ )
शास्त्रज्ञानका सार - जो श्रमण ममता नहीं तजता, साथ ही देह आदि पर - पदार्थोंमें अहंता - ममताको भूल नहीं जाता, वह उन्मार्गपर चलता है परन्तु मैं परका नहीं हूँ और पराये मेरे नहीं हैं, मैं अद्वितीय ज्ञानस्वरूप हूँ, जो ऐसा ध्यान करता है वह आत्मरूप बन जाता है । मैं अपने आत्माको शुद्ध, ध्रुव, ज्ञानस्वरूप, दर्शनस्वरूप, अतीन्द्रिय, महापुरुषार्थरूप, अचल और अनालम्व मानता हूँ । देह, अन्य द्रव्य, सुख-दु:ख, शत्रु-मित्र स्थायी नहीं रहते, केवल अपना ज्ञान-दर्शन-स्वरूप आत्मा ही ध्रुव है । ऐसा जानकर, जो गृहस्थ या मुनि विशुद्धचित्त होकर परमात्माका ध्यान करता है, वह दुष्ट मोह-प्रन्थिको छिन्न-भिन्न कर डालता है । श्रमण होकरके भी जो मोहकी ग्रन्थि छेदकर, राग-द्वेषसे किनारा काटकर, सुख-दुःखमें सम- बुद्धिवाला होता है, वही अक्षय सुख पाता है । मोह-मल हटाकर, विषयोंसे विरत होकर, मनका निरोध करके, जो अपने चैतन्य स्वरूपमें समवस्थित होता है, वही शुद्ध आत्माका ध्यान कर सकता है । (प्र०२,९०, १०६ ) जिन्हें पदार्थोंका सम्यग्ज्ञान प्राप्त हो गया है, जिन्होंने अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह तज दिया है, जिनमें विषयोंके प्रति आसक्ति नहीं है, वह शुद्ध भाववाला कहलाता है । जो शुद्ध हैं, वही सच्चा श्रमण है । उसीको दर्शन प्राप्त हैं, उसीको ज्ञान प्राप्त है, उसीको
१. इन्द्रिय आदि प्राण आत्माके स्वरूपभूत नहीं हैं, किन्तु सशरीर अवस्था में ये जीवके अवश्य होते हैं । इसीलिए अन्य दर्शनोंमें भी प्राणको जीवका चिह्न कहा है | "प्राणापान निमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तर्विकार : सुखदुःखेच्छाद्वेष प्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गानि' । (वै० सू० ३, २, ४ )