Book Title: Kundakundacharya ke Tin Ratna
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 61
________________ ६० कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न जो तीनों लोकों और तीनों कालोंके सब पदार्थोको एक साथ नहीं जान सकता, वह समस्त अनन्त पर्यायोंसहित एक द्रव्यको भी नहीं जान सकता । और जो अनन्त पर्यायोंसहित एक द्रव्यको भी नहीं जान सकता वह अनन्त द्रव्योंको एक साथ क्या जानेगा ? ज्ञानीका ज्ञान अगर विभिन्न पदार्थोंका अवलम्बन करके क्रमपूर्वक उत्पन्न होता है तो उसका ज्ञान नित्य भी नहीं कहा जा सकता, क्षायिक भी नहीं कहा जा सकता और सर्वगत भी नहीं कहा जा सकता । एक साथ त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थोको जाननेवाले इस ज्ञानके माहात्म्यको तो देखो । ( प्र० १,४७-५१ ) बन्धरहितता — केवलज्ञानी समस्त पदार्थोको जानता है, लेकिन उन पदार्थोंके निमित्तसे उसमें रागादि भाव उत्पन्न नहीं होता । वह उन पदार्थों को न ग्रहण करता है, न उद्रूप परिणत ही होता है । इस कारण उसे किसी प्रकारका बन्धन नहीं होता । कर्म तो अपना फल देते ही हैं, मगर उन फलोंमें जो मोहित होता है, या राग-द्वेष करता है, वह बन्धनको प्राप्त होता है । जैसे स्त्रियोंमें मायाचार अवश्य होता है, उसी प्रकार उन अर्हन्तोंको कर्मके उदयकालमें स्थान, आसन, विहार, धर्मोपदेश आदि अवश्य होते हैं । परन्तु उनकी वह सब क्रियाएँ कर्मके परिणाम स्वरूप ( ओदयिकी ) हैं । मोह आदिका अभाव होनेके कारण उन क्रियाओंसे कर्मोंका क्षयमात्र होता है, नवीन बन्धन नहीं होता । ( प्र० १, ५२, ४२-६ ) पारमार्थिक सुखरूपता - ज्ञानकी भाँति सुख भी दो प्रकारका है । अतीन्द्रिय-अमूर्त और ऐन्द्रिय-मूर्त । इन्द्रियादिकी सहायताके बिना स्वयं उत्पन्न हुआ, सम्पूर्ण, अनन्त पदार्थोंमें व्याप्त, विमल तथा अवग्रह आदिके क्रमसे रहित जो ज्ञान है, वही एकान्त सुख है । केवनज्ञान ही सच्चा सुख है । सम्पूर्ण घातिकर्म क्षीण हो जाने से केवलज्ञानीको किसी प्रकारका खेद नहीं होता । स्वाभाविक ज्ञान दर्शनका घात करनेवाला उनका सब अनिष्ट निवृत्त हो गया है और सब पदार्थोके पार पहुँचा हुआ ज्ञान और लोक तथा अलोकमें विस्तार प्राप्त दर्शनरूप इष्ट उन्हें प्राप्त हो गया ·

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