Book Title: Kundakundacharya ke Tin Ratna
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 33
________________ ३२ कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न स्वभावका परित्याग न करता हुआ उत्पत्ति, विनाश एवं ध्रुवत्वसे युक्त है, वह द्रव्य कहलाता है । अपने गुणोंके साथ, पर्यायोंके साथ तथा उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्यके साथ जो अस्तित्व है वही द्रव्यकी सत्ता अथवा द्रव्यका स्वभाव है। (प्र. २, ३-४) गुण और पर्याय - यहाँ यह समझने योग्य बात है कि द्रव्य, गुण और पर्यायमें परस्पर अन्यत्व तो है, मगर पृथक्त्व नहीं है। वस्तुओंमें आपसमें जो भेद पाया जाता है, उसे वीर भगवान्ने दो प्रकारका निरूपण किया है - (१) पृथक्त्वरूप और ( २ ) अन्यत्वरूप । प्रदेशोंकी भिन्नता पृथक्त्व है और तद्रूपता न होना अन्यत्व है। जैसे - दूध और दूधको सफेदी एक ही चीज नहीं है, फिर भी दोनोंके प्रदेश पृथक्-पृथक् नहीं हैं। इसके विरुद्ध दण्ड और दण्डीमें पृथक्त्व है - इन दोनोंको अलग किया जा सकता है । द्रव्य, गुण और पर्यायमें ऐसा पृथक्त्व नहीं है, (प्र. २,१४, १६ ) क्योंकि द्रव्यके बिना गुण या पर्याय नहीं हो सकते । द्रव्य जिन-जिन पर्यायोंको धारण करता है, उन-उन पर्यायोंके रूपमें वह स्वयं ही उत्पन्न होता है । जैसे - सोना स्वयं ही कुण्डल बनता है, स्वयं ही कड़ा बनता है, स्वयं ही अंगूठीके रूपमें बदल जाता है। पर्यायोंकी दृष्टि से देखिए तो नये-नये पर्याय उत्पन्न होते हैं, जो पहले नहीं थे, परन्तु द्रव्यकी अपेक्षासे देखा जाये तो वह ज्योंका त्यों विद्यमान है । जीव देव होता है, मनुष्य होता है, पशु होता है, लेकिन इन सब पर्यायोंमें उसका अपना जीवत्व नहीं बदलता - जीवरूपसे वह ज्योंका त्यों है। मगर यह भी सत्य है कि जीव जब मनुष्य होता है तब देव नहीं रहता और जब देव होता है तो सिद्ध नहीं होता। इस प्रकार द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षासे सब पर्याय एक द्रव्यरूप ही है। १. अनेक धर्मात्मक वस्तुके किसी एक धर्मको ग्रहण करनेवाला शान 'नव' कहलाता है। नय अर्थात् वस्त्वंशको ग्रहण करनेवाली एक दृष्टि । संक्षेपमें इसके दो भेद हैं - एक द्रव्यार्थिक और दूसरा पर्यायाधिक । जगतकी प्रत्येक

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