Book Title: Kundakundacharya ke Tin Ratna
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 34
________________ द्रव्यविचार किन्तु पर्यायाथिक नयकी अपेक्षासे, जिस समय जो पर्याय होता है उस समय द्रव्य उससे अभिन्न होनेके कारण और चूँकि पर्याय अनेक हैं इसलिए द्रव्य भी अनेक रूप हैं। इस प्रकार विभिन्न पर्यायोंकी अपेक्षा एक ही द्रव्यमें है (स्यादस्ति), 'नहीं है' (स्यान्नास्ति), 'है - नहीं है' (स्यादस्ति स्यान्नास्ति), 'अवक्तव्य' है, ( स्यादवक्तव्य) आदि सप्तभंगी का प्रयोग किया जा सकता है। हां, सत् पदार्थका कभी नाश नहीं हो सकता और असत्की उत्पत्ति नहीं हो सकती। गुण-पर्यायकी दृष्टिसे ही द्रव्यमें उत्पत्ति और विनाशका व्यवहार होता है । (प्र० २, १८-२३; पं० ११-२१) वस्तु एक-दूसरेसे न तो बिलकुल समान ही है और न अ-समान ही। उसमें सदृश और विसदृश दोनों ही अंश पाये जाते हैं। जब बुद्धि सिर्फ सामान्य अंशकी ओर झुकती है तब उस अंशको ग्रहण करनेवाला ज्ञाताका अभिप्राय द्रव्याथिक नय कहलाता है और जब बुद्धि भेद या अंशकी ओर झुकती है तब उसको ग्रहण करनेवाला शाताका अभिप्राय पर्यायायिक नय कहलाता है। जब आत्माके काल, देश या अवस्थाकृत मेदोंकी ओर दृष्टि न देकर मात्र शुद्ध चैतन्यकी ओर ध्यान दिया जाता है तब वह द्रव्यार्थिक नयका विषय होता है तथा जब उसकी अवस्थाओंकी ओर ही दृष्टि जाती है तब वह पर्यायार्थिक नयका विषय होता है। १. प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मयुक्त है। उसका शब्दोंसे निरूपण करना सम्भव नही। अतः अमुक दृष्टिसे वस्तु स्यात् - कथंचित् या अमुक निश्चित धर्मकाली है, इसी प्रकारका कथन सम्भव हो सकता है । जिस प्रकार वस्तु अपने स्वरूपसे स्यादस्ति - सद्भावात्मक है उसी प्रकार परस्वरूपकी अपेक्षा वह स्यान्नास्ति - कथंचित् अभावात्मक भी है। जब इन दोनों धर्मोको क्रमसे कहनेका प्रयास किया जाता है तो वस्तु स्यादस्ति नास्ति - कथंचित् सत् और कथचित् असत् रूप है । जब इन दोनों धर्मों को एक साथ कहनेकी चेष्टा की जाती है तो शब्दोंकी असामथ्य के कारण वस्तु स्यात् श्रवक्तव्य है। ऊपरके तीन भंगोंका - क्रमशः अवक्तव्यक साथ सम्बन्ध करनेपर स्यादस्ति प्रवक्तव्य, स्यान्नस्ति अवक्तव्य और स्यादस्तिनास्ति श्रवक्तव्य ये तीन भंग और बन जाते हैं।

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