Book Title: Kevalgyan Prashna Chudamani
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 14
________________ के लिए जैन ज्योतिष को ही पृष्ठभूमि के रूप में स्वीकार किया है। वेदांगज्योतिष पर उसके पूर्ववर्ती और समकालीन ज्योतिष्करण्डक, सूर्यप्रज्ञप्ति एवं षट्खण्डागम में फुटकर उपलब्ध ज्योतिष चर्चा का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। 'हिन्दुत्व' के लेखक ने जैन ज्योतिष का महत्त्व और प्राचीनता स्वीकार करते हुए पृष्ठ ५८१ पर लिखा है-“भारतीय ज्योतिष में यूनानियों की शैली का प्रचार विक्रमीय संवत् से तीन सौ वर्ष पीछे हुआ। पर जैनों के मूल ग्रन्थ अंगों में यवन ज्योतिष का कुछ भी आभास नहीं है। जिस प्रकार सनातनियों की वेदसंहिता में पञ्चवर्षात्मक युग है और कृत्तिका से नक्षत्र गणना है; उसी प्रकार जैनों के अंग ग्रन्थों में भी।" डॉ. श्यामशास्त्री ने 'वेदांग-ज्योतिष' की भूमिका में बताया है-“वेदांगज्योतिष के विकास में जैन ज्योतिष का बड़ा भारी सहयोग है, बिना जैन ज्योतिष के अध्ययन के वेदांगज्योतिष का अध्ययन अधूरा ही कहा जाएगा। भारतीय प्राचीन ज्योतिष में जैनाचार्यों के सिद्धान्त अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण हैं।" पंचवर्षात्मक युग का सर्वप्रथम उल्लेख जैन ग्रन्थों में ही आता है। काललोकप्रकाश, ज्योतिष्करण्डक और सूर्यप्रज्ञप्ति में जिस पंचवर्षात्मक युग का निरूपण किया है, वह वेदांगज्योतिष के युग से भिन्न और प्राचीन है। 'सूर्यप्रज्ञप्ति' में युग का निरूपण करते हुए लिखा है सावणबहुलपडिवए बालवकरणे अभीइनक्खत्ते। सव्वत्थ पडमसमये जुअस्स आइं वियाणाहि॥ अर्थात् श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन अभिजित् नक्षत्र में पंचवर्षीय युग का आरम्भ होता है। __जैन ज्योतिष की प्राचीनता के अनेक सबल प्रमाण मौजूद हैं। प्राचीन जैनागम में ज्योतिषी के लिए 'जोइसंगविउ' शब्द का प्रयोग आया है। 'प्रश्नव्याकरणांग' में बताया है-“तिरियवासी पंचविहा जोइसीया देवा, वहस्सती, चंद, सूर, सुक्क, सणिच्छरा, राहू, धूमकेउ, बुद्धा य, अंगारगा य, तत्ततवणिज्ज कणगवण्णा जेयगहा जोइसियम्मि चारं चरंति, केतु य गतिरतीया। अट्ठावीसतिविहाय णक्खतरेवगणा णाणासंढाणसंठियाओ य तारगाओ ठियलेस्साचारिणो य।" इससे स्पष्ट है कि नवग्रहों का प्रयोग ग्रहों के रूप में ई. पू. तीसरी शती से भी पहले जैनों में प्रचलित था। ‘ज्योतिष्करण्डक' का रचनाकाल ई. पू. तीसरी या चौथी शती निश्चित है। उसमें लग्न का जो निरूपण किया है, उससे भारतीय ज्योतिष की कई नवीन बातों पर प्रकाश पड़ता है। लग्गं च दक्षिणायविसुवेसुवि अस्स उत्तरं अयणे। लग्गं साई विसुवेसु पंचसु वि दक्खिणे अयणे॥ इस पद्य में 'अस्स' यानी अश्विनी और 'साई' यानी स्वाति ये विषुव के लग्न बताये गये हैं। ज्योतिष्करण्डक' में विशिष्ट अवस्था के नक्षत्रों को भी लग्न कहा गया है। यवनों के आगमन के पूर्व भारत में यही जैन लग्नप्रणाली प्रचलित थी। 'वेदांगज्योतिष' में भी इस लग्नप्रणाली का आभास मिलता है-"श्रविष्ठाभ्यां गुणाभ्यस्तान् प्राविलग्नान् विनिर्दिशेत्” इस १२ : केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि

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