Book Title: Karmgranth Vivechan
Author(s): Devendrasuri, Bhagwandas Harakhchand
Publisher: Bhogilal Jivraj
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३१०
संघयणअथिरसंठाणछक्कअगुरुलहुचउ अपज्जत्त । ' सायं व असायं वा, परित्तुवं गतिगसुसरनि ॥ ३२ ॥ बिसयरि खओ अ चरिमे, तेरस मणुअतसतिगजसाइज्ज । सुभगजिणुच्चपणि दिअसायासाएगयरछेओ ॥ ३३ ॥ नरअणुपुत्रि विणा वा, बारस चरमसमयंमि जो खविउ ॥ पत्तो सिद्धिं देविंदर दि नमह त वीर ॥ ३४ ॥
कम स्तव समाप्त ।
वन्धस्वामित्व (तृतीय कर्मग्रन्थ) बंधविहाणविमुक्क, वदिअ सिरिबद्धमाणजिणच द । गइआईसु वुच्छं, समासओ बंधसामित्त ॥ १ ॥ [गइ ई दिए य काए, जोए वेए कसाय नाणे य । संजम दसण लेसा, भव सम्मे सन्नि आहारे ॥ २ ॥) जिणसुरविउवाहारदु, देवाउ अ निरयसुहुमविगलतिग एगिौद थावरायव, नपुमिच्छ हुडछेवटुं ॥ ३ ॥ अणमज्झागिइसघयणकुखगनिअइत्थिदुहगथीणतिगं । उज्जोअतिरिदुग तिरिनराउ नरउरलदुगरिसह ॥ ४ ॥ सुरइगुणवीसवज्ज, इगसउ ओहेण ब धहिं निरया । तित्थ विणा मिच्छि सय, सासणि नपुचउ विणा छनुई ॥५॥ विणु अणछवीस मीसे, बिसयरि सम्मंमि जिणनराउजुया । इअ रयणाइसु भगो, पकाइसु तित्थयरहीणो ॥ ६ ॥ अजिणमणुआउ ओहे, सत्तमिए नरदुगुच्च विणु मिच्छे । इंगनवई सासाणे, तिरिआउनपुंसचउवज्ज ॥ ७ ॥

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