Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 17
________________ ( १२ ) कर्मग्रंथों का परिचय इस सप्ततिका प्रकरण का कर्मग्रन्थों में क्रम छठवां है। इसके रचयिता का नाम अज्ञात है इस ग्रन्थ में बहत्तर गाथाएँ होने से गाथाओं की संख्या के आधार से इसका नाम सप्ततिका रखा गया है । इसके कर्ता आदि के बारे में यथाप्रसंग विशेष रूप से जानकारी दी जा रही है । लेकिन इसके पूर्व श्रीमद् देवेन्द्रसूरि विरचित पाँच कर्मग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करते हैं । श्रीमद् देवेन्द्रसूरि ने क्रमशः कर्मविपाक, कर्मस्तव, बंधस्वामित्व, षडशीति और शतक नामक पाँच कर्मग्रन्थों की रचना की है । ये पांचों नाम ग्रन्थ के विषय और उनको गाथा संख्या को ध्यान में रख कर ग्रन्थकार ने दिये हैं । प्रथम, द्वितीय और तृतीय कर्मग्रंथ के नाम उनके वर्ण्य विषय के आधार से तथा चतुर्थ और पंचम कर्मग्रन्थ के नाम षडशीति और शतक उन उन में आगत गाथाओं की संख्या के आधार से रखे गये हैं । इस प्रकार से कर्मग्रन्थों के पृथक-पृथक नाम होने पर भी सामान्य जनता इन कर्मग्रन्थों को प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पंचम कर्मग्रन्थ के नाम से जानती है । प्रथम कर्मग्रन्थ के नाम से ज्ञात कर्मविपाक नामक कर्मग्रन्थ में ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि कर्मों, उनके भेद-प्रभेद और उनका स्वरूप अर्थात् विपाक अथवा फल का वर्णन दृष्टान्तपूर्वक किया गया है । कर्मस्तव नामक द्वितीय कर्मग्रन्थ में भगवान के द्वारा चौदह गुणस्थानों का स्वरूप और इन कर्मग्रन्थ में वर्णित कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय किया गया है । Jain Education International महावीर की स्तुति गुणस्थानों में प्रथम और सत्ता का वर्णन तीसरे बंधस्वामित्व नामक कर्मग्रन्थ में गत्यादि मार्गणाओं के आश्रय से जीवों के कर्मप्रकृति-विषयक बन्धस्वामित्व का वर्णन किया गया है । दूसरे कर्मग्रन्थ में गुणस्थानों के आधार से बन्ध का वर्णन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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