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भावना आचार्य समन्तभद्र ने जैनागम को चार भागों में विभक्त किया है। यथा- प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग। इनमें तीन अनुयोगों की अपेक्षा करमानुयोग का विषय जटिल है; जिससे किसी के सहज ग्राह्य नहीं है। करुणाबुद्धि से प्रेरित होकर ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध और अनुभववृद्ध विद्वद्वर्य पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने जीवकाण्ड के आधार से करणानुयोग दीपक का प्रथम भाग, कर्मकाण्ड के आधार से दूसरा भाग और त्रिलोकसार, तिलोयपण्णत्ती एवं राजवार्तिक के आधार से तीसरा भाग लिखा था; जिनका प्रकाशन क्रमशः सन् १६८५, १६८७ और १९६० में श्री भारतवर्षीय दि. जैन महासभा से हुआ है। प्रथम भाग की प्रतियाँ समाप्त हो चुकी हैं। गत वर्ष संघ में आवश्यकता पड़ी थी जिसकी पूर्ति जीरोक्स कॉपियाँ निकलवा कर करनी पड़ी, अतः इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित करने की योजना बनी1
संघस्था आर्यिका प्रशान्तमती जी ने इस संस्करण में जीवकाण्ड के आधार से ही कुछ संशोधन कर और कुछ प्रश्नोत्तर परिवर्धित कर प्रेस कॉपी तैयार की। वे इसी प्रकार कार्यरत रहकर अपने उपलब्ध क्षयोपशम की वृद्धि करें, यही भावना है।
श्री पण्डित जी सा. ने अत्यन्त कठिन प्रमेयों को संक्षिप्त