Book Title: Kalpsutram
Author(s): Danvijay Gani
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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कम्पसून व्याख्या-वासावासमित्यादितः पविसित्तए ति यावत् , तत्र अष्टमभक्तिकस्य त्रयः, न च प्रातहीतमेव धारयेत् । किरणाव ॥१८५॥18 सञ्चयसंसक्तिसाप्राणादिदोषप्रसङ्गात् ॥ २३ ॥
वासावासं प० विगिट्टभत्तिअस्स भिक्खुस्स कप्पति सव्वे वि गोयरकाला गाहा० भ० पा० नि०प०॥२४॥ व्याख्या-यासा० पवि० तत्र विगिट्ठभत्तिअस्स त्ति अष्टमादूर्वं यत्तपस्तद्विकृष्टभक्तमुच्यते सव्वे वि गोअरकाल, त्ति चतुरोऽपि प्रहरान् ॥ २४ ॥ एवमाहारविधिमुक्त्वा पानकविधिमाह
वासावासं प० निच्चभत्तिअस्स भिक्खुस्स कप्पति सव्वाइं पाणगाइं पडिगाहित्तए, वासावासं प० चउत्थभत्तिअस्स भिक्खुस्स कप्पंति तओ पाणगाइं पडिगाहित्तए, तं जहा-उस्सेइमं संसेइमं चाउलोदगं । वासावासं प० छहभत्तिअस्स भिखुस्स कप्पंति तओ पाणगाई पडिगाहित्तए, तं जहा-तिलोदगं तुसोदगं जवोदगं । वासावासं ५० अट्टमभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति तओ पाणगाइं पडिगाहित्तए तं जहा-आयामं सोवीरं सुद्धवियडं । वासावासं प० विकिट्ठभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पति एगे उसिणवियडे पडिगाहित्तए, से वि अ णं अ
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॥१८५॥
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