Book Title: Kaisi ho Ekkisvi Sadi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 64
________________ स्वस्थ समाज रचना 55 दो स्थितियां हैं। एक है उन्माद की स्थिति और दूसरी है शान्त स्थिति। शान्त स्थिति में आदमी अहिंसक मूल्य को महत्त्व देता है किन्तु उन्माद जब आता है, उस स्थिति में वह हिंसा कर लेता है। अहिंसा के संस्कार हिंसा स्वाभाविक या नैसर्गिक मांग नहीं है। वह एक अस्वाभाविक परिस्थिति है। हम कुछ कारणों से प्रभावित होकर उस दिशा में चले जाते हैं। यह बात समझ में आनी चाहिए कि समाज का मूल्य अहिंसा ही हो सकता है और इसी आधार पर समाज बना है। __ आज आदमी इस बात को भूल-सा गया है। इस स्थिति में उपाय की बात सोचनी चाहिए कि किस उपाय में अहिंसा के मूल्य को पुनः प्रस्थापित करें? इस पर जब चिंतन करते हैं तो ऐसा लगता है कि एक और प्रयोग किया जाए। वह प्रयोग यह हो कि बचपन से ही अहिंसा की आस्था उत्पन्न की जाए। जब हिंसा की आस्था उत्पन्न हो जाती है, यह धारणा बन जाती है कि हिंसा के बिना काम नहीं चलता, फिर उसे बदलना बहुत जटिल हो जाता है। बचपन के संस्कार इतने प्रभावी होते हैं कि बाद में आने वाले संस्कार उनके सामने टिक नहीं पाते। एक प्रयोग करने की जरूरत है और वह प्रयोग होगा-बचपन से अहिंसा की आस्था का निर्माण। __ जीवन विज्ञान की प्रकल्पना इसी चिंतन का एक परिणाम है। जिन सामाजिक मूल्यों को हम समाज में देखना चाहते हैं, विकसित करना चाहते हैं, उन सामाजिक मूल्यों को बचपन से प्रतिफलित करना चाहिए, उनके प्रति आस्था पैदा करनी चाहिए। अहिंसा की आस्था आज सबसे बड़ा संकट है आस्था का। श्रद्धा इतनी विचलित है कि आदमी कहीं भी टिक नहीं पा रहा है। एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा और तीसरे के बाद चौथा कदम आगे बढ़ रहा है। कहीं पैर जमाकर खड़ा होकर आदमी कुछ करना नहीं चाहता। एक आदमी के मन में बचपन से ही साधना की बात आई और साधना करने लगा। किन्तु चंचलता इतनी कि किसी भी बात पर जमा नहीं। आज एक पद्धति को अपनाया तो तीसरे दिन दूसरी पद्धति को और सातवें दिन तीसरी पद्धति को। बदलता गया, बदलता गया। आज यह स्थिति है कि वह जहां था, लगभग वहीं है, बहुत आगे सरक नहीं पाया। कहीं न कहीं आदमी को अपना पैर जमाकर खड़ा होना होता है और जब तक वह बिन्दु प्राप्त नहीं होता, कहीं भी हम कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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