Book Title: Kaisi ho Ekkisvi Sadi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 124
________________ अहिंसा 115 का प्रश्न जडा होता तो गरीब और अमीर के बीच इतना अन्तर नहीं होता, समाज को नये ढंग से सोचने का मौका मिलता, अर्थ और परिग्रह की समस्या भयंकर नहीं बनती। हम भारत के बड़े शहरों को देखें। एक ओर आसमान को छूती अट्टालिकाएं खड़ी हैं तो दूसरी ओर ऐसी झुग्गी-झोंपड़ियों की कतारें लगी हैं, जिनको देखकर आदमी का मन वितृष्णा से भर जाता है। क्या यह अन्तर मिट सकता है? क्या इस स्थिति में आर्थिक समानता की बात सफल हो सकती है? हम देखते हैं, एक ओर अनेक संभ्रांत व्यक्ति शादी-ब्याह में लाखों-करोड़ों रुपये खर्च कर देते हैं, दूसरी ओर लाखों-करोड़ों लोग भूख से पीड़ित हैं। यह कितनी भयानक स्थिति है। कहां इच्छा-परिमाण की बात और कहां अपरिग्रह की बात । अपरिग्रह की बात करने में भी संकोच होता है। हिन्दुस्तान में सैकड़ों उद्योगपति हैं, हजारों-लाखों व्यापारी हैं। उनमें बहुत सारे ऐसे हैं, जिन्होंने अपने जीवन में इच्छा-परिमाण या भोगोपभोग के संयम का स्वर सुना ही नहीं होगा। वे एक ही बात जानते हैं-खूब कमाना, खूब भोगना और शादी-ब्याह में खुले हाथ लुटाना। हिंसा से भी अधिक जटिल है परिग्रह की समस्या। वर्तमान समस्या को देखते हुए अपरिग्रह पर अधिक बल देना जरूरी है। अहिंसा परमो धर्मः के साथ-साथ अपरिग्रहः परमो धर्मः इस घोष का प्रबल होना जरूरी है। अहिंसा और अपरिग्रह का एक जोड़ा है, उसे काट दिया गया है। उसे वापस जोड़कर ही समाधान की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। जिस दिन अहिंसा परमो धर्मः के साथ अपरिग्रहः परमो धर्मः का स्वर बुलन्द होगा, आर्थिक समस्या को एक समाधान उपलब्ध है जाएगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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