Book Title: Kaisi ho Ekkisvi Sadi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 132
________________ शिक्षा विकास नहीं हो सकता । उनके समन्वय की अपेक्षा है । इस अपेक्षा की अनुभूति हो रही है । क्रियान्विति करने में संभवतः कठिनाई आ रही है। इसका कारण है - शिक्षा के विषयों की बहुलता । एक विद्यार्थी अनेक विषयों को पढ़ता है । उनके सारे कालांश निर्धारित हैं। प्रशिक्षण के लिए कोई कालांश खाली नहीं है । इस स्थिति में नैतिक शिक्षा के लिए मूल्यपरक शिक्षा, जीवन विज्ञान शिक्षा और प्रशिक्षण - ये सब चर्चा के विषय बनकर रह जाते हैं । व्यक्तित्व का रूपान्तरण अथवा चरित्र का विकास केवल बौद्धिक शिक्षा से संभव नहीं है । इसके लिए प्रशिक्षण आवश्यक है । चरित्र विकास के लिए उत्तरदायी मस्तिष्कीय कोशों को सक्रिय कर सकें, वैसे प्रशिक्षण आवश्यक हैं। जीवन विज्ञान की परिकल्पना से इस विषय पर गहराई से चिन्तन किया गया है । चिन्तन का प्रथम बिन्दु है - जो पढ़ाया जा रहा है, उसमें जो अल्प आवश्यक है, उसे छोड़ा जा सकता है। जो बहुत आवश्यक है, नहीं पढ़ाया जा रहा है, उसे जोड़ा जा सकता है। इसी प्रकार नई कल्पना के साथ शिक्षा की पुनः व्यवस्था की जाए तभी प्रशिक्षण के कालांश की समस्या का समाधान होगा । 123 ज्ञान की अनेक शाखाएं हैं। कोई भी शिक्षा-संस्थान विद्यार्थी को सब शाखाओं का ज्ञान नहीं करा सकता। उनका चयन होता है। चयन में स्वीकृत शाखाओं का ही ज्ञान कराया जाता है। चयन काल में प्राथमिकता अथवा अनिवार्यता का प्रश्न शिक्षाविदों के सामने रहना चाहिए। क्या चरित्र-निर्माण से संबद्ध शिक्षा अनिवार्यता की सूची में नहीं आ सकती ? भूगोल, खगोल और इतिहास का विषय कभी कभार उपयोगी बनता है । चरित्र-निर्माण की शिक्षा सतत उपयोगी है। इस ओर शिक्षाविदों का ध्यान नहीं गया, यह कहना उनके साथ न्याय नहीं होगा । किन्तु यह कहना असंगत नहीं होगा कि इस विषय को शिक्षाविदों ने प्राथमिकता की सूची में नहीं रखा। शिक्षा से इतना ही अवबोध हो रहा है - एक विद्यार्थी भाषा, गणित, कला, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि का अध्ययन करे और वह शिक्षित होकर सेवा, व्यापार, उद्योग आदि किसी भी जीविकोपयोगी प्रवृत्ति में लग जाए । जीविका जीवन की प्राथमिकता है । इस दृष्टि से इस अवधारणा को बुद्धिशून्य नहीं कहा जा सकता। रोटी जीवन की प्रथम आवश्यकता है। उसकी पूर्ति करने वाली शिक्षा को गलत कहना मिथ्या आग्रह हो सकता है । क्या मनुष्य केवल रोटी के लिए ही है? क्या उसके मस्तिष्कीय विकास की सीमा धन के अर्जन तक ही है? वर्तमान शिक्षा की अवधारणा से यह प्रश्न उत्तरित नहीं है I बौद्धिक विकास और मानसिक विकास एक नहीं है। उसके मध्य जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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