Book Title: Kaisi ho Ekkisvi Sadi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 135
________________ कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी ? भय, अहंकार, क्रोध, लोभ, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष और वासना के संस्कार - बीज प्रत्येक बच्चे में होते हैं । उसे जीविकोपयोगी विद्या के साथ वह विद्या भी पढ़ाई जाए, जिससे वह अपने संस्कारों का परिष्कार करता रहे । 1 संस्कार का संबंध पूर्वजन्म के साथ है। एक बच्चा पूर्वजन्म से अपने साथ संस्कार - बीज लेकर आता है । शिक्षा प्रणाली में पूर्वजन्म का सिद्धान्त सबको मान्य हो, यह अनिवार्य नहीं । पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का प्रश्न दर्शन और धर्म के क्षेत्र का प्रश्न है। क्या यह शिक्षा के क्षेत्र का प्रश्न नहीं है ? सहज ही यह चिन्तन स्फुरित हो सकता है कि शिक्षा पर विचार करते समय हमें इस प्रश्न की गहराई में जाना चाहिए। यह प्रश्न दर्शन, काव्यानुशासन, मनोविज्ञान, परामनोविज्ञान और आनुवंशिकी सबके परिप्रेक्ष्य में आलोचनीय है । 126 अधूरी शिक्षा : मस्तिष्क का अधूरा विकास दर्शन की दो धाराएं हैं। एक धारा में पुनर्जन्म मान्य है । दूसरी धारा में वह मान्य नहीं है । दार्शनिक दृष्टि से दोनों धाराओं की शिक्षा का आधार भिन्न है, फिर भी एक बिन्दु पर दोनों एक आसन पर बैठ जाते हैं। वह बिन्दु है नैतिकता । सामाजिक जीवन में नैतिकता का मूल्य सबके लिए है । समाज जीवन के तीन आधार स्तम्भ हैं- पारस्परिकता, नैतिकता और मानवीय सम्बन्ध । शिक्षा के द्वारा ये फलित होने चाहिए। फल मूल (रूट) के अनुरूप ही होता है । 'नैतिक शिक्षा' यह शब्द शिक्षा के क्षेत्र में बहुत चल रहा है। हम इससे सहमत नहीं हैं। शिक्षा की समायोजना में नैतिकता के आधार तत्व समाविष्ट होने चाहिए। उनका विकास एक विद्या शाखा के रूप में किया जा सकता है । हमने नैतिक शिक्षा के स्थान पर 'जीवन विज्ञान' शब्द का चयन किया है । नैतिकता सहज फलित हो जाती है । एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को आलंबन - सहारा देना नहीं जानता, उस स्थिति में समाज स्वस्थ नहीं रहता । एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ संबंध अच्छा नहीं है। वह अपने आपको उच्च जाति वाला मानता है, दूसरे को निम्न जाति वाला मानकर उससे घृणा करता है, संबंध कटु हो जाते हैं । साम्प्रदायिक कट्टरता भी मानवीय संबंधों को मधुर नहीं बनने देती। कुछ लोग सोचते हैं- धार्मिक शिक्षा से नैतिकता फलित हो सकती है। यह सोच पूर्णतः मिथ्या भी नहीं है और पूर्णतः सत्य भी नहीं है । धार्मिक चिन्तन का नैतिकता फल है, इसमें कोई सन्देह नहीं है किन्तु धर्म की उर्वरा में ही जातिवाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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