Book Title: Kaisi ho Ekkisvi Sadi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 123
________________ 114 कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी ? के बिना कभी संभव नहीं है । हम एक बिन्दु को पकड़ें। भगवान महावीर के दो सूत्र - इच्छा - परिमाण और भोगोपभोग परिमाण - आर्थिक समस्या को समाधान दे सकते हैं । जब तक इच्छा और भोग का संयम नहीं होगा, तब तक न अहिंसक समाज संरचना का सपना साकार होगा और न ही आर्थिक समस्या सुलझ पाएगी। वर्ग संघर्ष की क्रान्तियां, हिंसक क्रान्तियां इसलिए होती हैं कि व्यक्ति लोभी और स्वार्थी बन जाता है, केवल अपने भोगोपभोग की ही चिन्ता करता है, संग्रही और परिग्रही बन जाता है । वह अपने आस-पास की ओर ध्यान नहीं देता । यह स्थिति ही क्रान्ति को जन्म देती है । आर्थिक विकास : आर्थिक संयम आर्थिक व्यवस्था का सबसे बड़ा सूत्र हो सकता है- पूरे समाज की न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी हो जाएं। रोटी, कपड़ा, मकान, दवा और शिक्षा . के साधन प्रत्येक व्यक्ति को सुलभ हो जाएं। आर्थिक समानता की बात छोड़ दें । सब व्यक्तियों का कमाने का अलग-अलग ढंग होता है, व्यावसायिक कौशल होता है । कोई अधिक कमाता है और कोई कम । आर्थिक समानता का यांत्रिकीकरण नहीं हो सकता । सब लखपति हों, यह कभी संभव नहीं है । इतना हो सकता है - जीवन की प्रारम्भिक और मौलिक आवश्यकताएं सबको समान रूप से मिलें। अपनी-अपनी विशेष योग्यता से व्यक्ति लाभ कमाए, उसमें दूसरों को आपत्ति न हो । रस्किन और गांधी का मत था - एक न्यायाधिकारी को जितना मिले, उतना ही एक वकील को मिले। इसका मतलब है, जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके, उतना तो अवश्य मिले। यह बात भी तब तक सफल नहीं हो सकेगी, जब तक आर्थिक विकास के साथ-साथ आर्थिक संयम और भोगोपभोग के संयम की बात नहीं जुड़ेगी । समस्या यह हुई, आर्थिक विकास पर बहुत बल दिया गया, अधिक उत्पादन, अधिक आय और समान वितरण-इन पर बहुत ध्यान दिया गया, किन्तु इनके साथ दो बातों को जोड़ना चाहिए था - आर्थिक संयम और इच्छा का संयम । इनको नहीं जोड़ा गया। परिणाम यह आया, आर्थिक समस्या सुलझ नहीं पाई। इस बिन्दु पर कहा जा सकता है, धर्म के बिना समाज की व्यवस्था लड़खड़ा जाती है। अगर इन दोनों का योग होता, आज के अर्थशास्त्री आर्थिक विकास के साथ संयम की बात को जोड़ देते तो एक नया समीकरण बनता। इच्छा-संयम और भोग-संयम के साथ आर्थिक विकास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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