Book Title: Kaisi ho Ekkisvi Sadi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 105
________________ 96 कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी? अपनी अतीन्द्रिय चेतना से सारी बातों को पकड़ा गया। महावीर ने कहा-तुम देखो। वनस्पति आदि में अव्यक्त चेतना है। उनकी चेतना व्यक्त नहीं है। उन्हें कष्ट कैसे होता है? सुख की अनुभूति कैसे होती है? इसे स्थूल उदाहरण की भाषा में समझाया। उन्होंने कहा-एक आदमी आँख से अन्धा है, वाणो से मूक है और कानों से बहरा है। आँख और कान इन दो इन्द्रियों के न होने का मतलब है जगत से सम्पर्क का विच्छेद। आँख से देखकर या कान से सुनकर हम अपनी भावना व्यक्त करते हैं। जीभ से बोलकर हम अपनी बात कहते हैं। जो व्यक्ति अन्धा भी है, बहरा और मूक भी है, वह न देख सकता है, न बोल सकता है, न सुन सकता है। ऐसे प्राणी को अगर कोई सताता है तो क्या उसे कष्ट होता है? 'हां भंते! होता है।' 'कैसे होता है?' 'भंते! कष्ट होता ही है पर वह उसे प्रगट नहीं कर सकता।' भगवान ने कहा-'इसी प्रकार सूक्ष्म जीवों को चोट पहुंचाने पर कष्ट होता है किन्तु उनके पास न कान है, न आँख और न जीभ है। उनके पास ऐसा कोई साधन नहीं है, जिससे वे अपनी वेदना को अभिव्यक्ति दे सकें। उनमें भी निरन्तर प्राणधारा बह रही है, इसलिए वेदना तो होगी ही।' । आज के वैज्ञानिकों ने उस प्राणधारा का नाम दिया है-कॉस्मिक रेजागतिक प्राणशक्ति। उसे सब प्राणी भोग रहे हैं। महावीर ने दूसरा उदाहरण दिया-एक आदमी मूर्छित हो गया। मूर्छा में उसे कष्ट होता है या नहीं? हमें इसका पता नहीं चलता, पर अन्तश्चेतना में वह कष्ट का वेदन जरूर करता है। एक ज्ञान की शक्ति होती है, जो मूर्छित अवस्था में भी बात को पकड़ लेती है। इसी आधार पर उन्होंने कहा-जैसे मूछित आदमी कष्ट का अनुभव करता है, उसे व्यक्त नहीं कर पाता, वैसे ही सूक्ष्म जीव कष्ट का अनुभव करते हैं, चाहे वे उसे व्यक्त न कर पाएं। आचारांग सूत्र में इन उदाहरणों के द्वारा सूक्ष्म जीवों की संवेदना को व्यक्त किया गया है। आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोग इस संवेदना के तथ्य को और स्पष्ट कर रहे हैं। इस सुख-दुःख की अनुभूति के बारे में मॉडर्न रिसर्च पुस्तक में जो व्यापक विश्लेषण किया गया है, उससे यह धारणा स्पष्ट हो जाती है कि सूक्ष्म जगत में इन्द्रिय चेतना और उससे परे अतीन्द्रिय चेतना का अस्तित्व विद्यमान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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