Book Title: Kaisi ho Ekkisvi Sadi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 109
________________ 100 कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी ? तक न यह संसार सुन्दर रहेगा, न यह त्रस सृष्टि विकास की दशा में आगे बढ़ पाएगी और न पर्यावरण सुरक्षित रहेगा। पर्यावरण का मौलिक सूत्र 1 इस विश्व में मैं अकेला नहीं हूं । केवल मेरा ही अस्तित्व नहीं है - यह पर्यावरण विज्ञान का मौलिक सूत्र है। प्रत्येक व्यक्ति अपने आस-पास सभी दिशाओं में पर्यावरण का कवच पहने हुए श्वास ले रहा है। उसके परिपार्श्व में जीव और अजीव - दोनों का पर्यावरण है। भगवान महावीर ने कहा- मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति- इन सबमें जीव है । उनके अस्तित्व को अस्वीकार मत करो। उनके अस्तित्व के अस्वीकार का अर्थ है-अपने अस्तित्व का अस्वीकार। अपने अस्तित्व को अस्वीकार करने वाला ही उनके अस्तित्व को नकार सकता है। स्थावर और जंगम, दृश्य और अदृश्य - सभी जीवों का अस्तित्व स्वीकारने वाला ही पर्यावरण के साथ न्याय कर सकता है । अचेतन जगत के अस्तित्व को भी अस्वीकार मत करो। इस संसार में रहने वाली प्रत्येक चेतन सत्ता अचेतन की ओढ़नी ओढ़े हुए है । जीव जीव को प्रभावित करता है । वह अजीव को भी प्रभावित करता है। अजीव जीव प्रभावित करता है। ये प्रभाव की धाराएं बहुत संक्रमणशील हैं। इसलिए कोई भी व्यक्ति अकेला नहीं है। हिमालय की गुफा में बैठा अकेला व्यक्ति भी अपने साथ पूरे संसार को लिए बैठा है। 1 दूसरों के अस्तित्व, उपस्थिति, कार्य और उपयोगिता को स्वीकार करने वाला ही व्यक्ति और समाज के बीच सामंजस्य स्थापित कर सकता है 1 अहिंसा सामंजस्य का सूत्र है । पर्यावरण विज्ञान और अहिंसा में अभिन्नता है । यह विज्ञान इस शताब्दी की देन है । अहिंसा का सिद्धान्त बहुत पुराना है। भगवान महावीर ने अहिंसा को अनेक पहलुओं से देखा । उनमें एक पहलू है पर्यावरण विज्ञान | पर्यावरण असंतुलन क्यों? भगवान महावीर ने पर्यावरण का आधार ही नहीं दिया, उसकी क्रियान्विति का मार्ग भी सुझाया- 'जिन जीवों की हिंसा के बिना तुम्हारी जीवन-यात्रा चल सकती है, उनकी हिंसा मत करो। जीवन-यात्रा के लिए जिनका उपयोग अनिवार्य है, उनकी भी अनावश्यक हिंसा मत करो ।' पदार्थ का भी अनावश्यक उपभोग मत करो। इस निर्देश के संदर्भ में वर्तमान पर्यावरण की समस्या की समीक्षा आवश्यक है। आज पृथ्वी का अतिरिक्त For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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