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हस्तलिखित जैन साहित्य १.१.१४
१७१ ५६८७३. (+) ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र सह टीका, अपूर्ण, वि. १६२८, भाद्रपद शुक्ल, ९, मध्यम, पृ. ८१-५०(१ से ४५,४७ से ५०,७९)=३१, ले.स्थल. नारदपुरी, पठ. मु. जसराज, प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. संशोधित., जैदे., (२५.५४१०.५, १८४४५). ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र, आ. सुधर्मास्वामी, प्रा., प+ग., आदि: (-); अंति: (-), अध्ययन-१९, ग्रं. ५५००,
(पू.वि. अध्ययन-८ अपूर्ण से है., वि. श्रुतस्कंध-२ का मूलपाठ नहीं है.) ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र-टीका, आ. अभयदेवसूरि , सं., गद्य, वि. ११२०, आदि: (-); अंति: चत्वारि द्विशतानि च,
__अध्ययन-१९, ग्रं. ४२००. ५६८७४. (#) प्रश्नोत्तरसमुच्चय, अपूर्ण, वि. १६५३, वैशाख शुक्ल, ४, बुधवार, श्रेष्ठ, पृ. ४४-१५(१ से १५)=२९, ले.स्थल. पत्तननगर,
प्रसं.ग. लाभविजय (तपागच्छ); अन्य. ग. लब्धिसागर-शिष्य (गुरु उपा. लब्धिसागर, बृहत्तपागच्छ); ग. कल्याणकुशल (तपागच्छ); ग. सोमविजय; गच्छाधिपति विजयसेनसूरि (गुरु आ. हीरसूरि , तपागच्छ), प्र.ले.पु. मध्यम, प्र.वि. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२५.५४११, १३४४३). हीरप्रश्न, उपा. कीर्तिविजय, सं., गद्य, आदि: (-); अंति: तु तत्वविद्वेद्यमिति, (पू.वि. प्रारंभ के पत्र नहीं हैं., प्रकाश-३,
प्रश्न- १३ से है.) ५६८७६. (+#) दशवैकालिकसूत्र सह टबार्थ, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. ३१-४(१ से ४)=२७, पृ.वि. बीच के पत्र हैं., प्र.वि. संशोधित-टिप्पण युक्त विशेष पाठ. मूल व टीका का अंश नष्ट है, जैदे., (२५.५४१०.५, ५४४०-४५). दशवैकालिकसूत्र, आ. शय्यंभवसूरि, प्रा., पद्य, वी. रवी, आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. अध्ययन- ४, सूत्र-३ से
अध्ययन- ७, गाथा-३ अपूर्ण तक है.)
दशवैकालिकसूत्र-टबार्थ *, मा.गु., गद्य, आदि: (-); अंति: (-). ५६८७७. (+#) शोभनस्तुति सह टीका, अपूर्ण, वि. १८वी, श्रेष्ठ, पृ. ४४-१८(१ से २,८,१३ से २६,४३)=२६, प्रले. मु. रतिचंद्र (गुरु
मु. देवचंद्र); गुपि. मु. देवचंद्र, प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२७४१०.५, १३-१८४३५). स्तुतिचतुर्विंशतिका, मु. शोभनमुनि, सं., पद्य, आदि: (-); अंति: हारताराबलक्षेमदा, स्तुति-२४, श्लोक-९६,
(पू.वि. प्रारंभ व बीच-बीच के पत्र नहीं हैं., श्लोक-२ अपूर्ण से ११ तक, १४ से २३ तक, ५८ से श्लोक- ९३ एवं ___ श्लोक- ९६ है.) स्तुतिचतुर्विंशतिका-शिशुबोधिनी टीका, पंडित. देवचंद्र, सं., गद्य, आदि: (-); अंति: देव्याः संबोधनपदानि,
पू.वि. प्रारंभ व बीच-बीच के पत्र नहीं हैं. ५६८७८. (+) उपदेशमाला, संपूर्ण, वि. १७वी, श्रेष्ठ, पृ. २४, प्र.वि. संशोधित., जैदे., (२५.५४१०.५, ११४४१).
उपदेशमाला, ग. धर्मदासगणि, प्रा., पद्य, आदि: नमिण जिणवरिंदे इंदन; अंति: वयण विणिग्गया वाणी, गाथा-५४४. ५६८७९. पिंडनियुक्ति, अपूर्ण, वि. १७वी, मध्यम, पृ. २३, पू.वि. अंत के पत्र नहीं हैं., जैदे., (२६४११, १३४५०).
पिंडनियुक्ति, आ. भद्रबाहुस्वामी, प्रा., पद्य, आदि: पिंडे उग्गम उप्पाय; अंति: (-), (पू.वि. गाथा-७०९ अपूर्ण तक है.) ५६८८०. (+#) आचारांगसूत्र सह बालावबोध- श्रुतस्कंध २, अपूर्ण, वि. १८वी, जीर्ण, पृ. ३०-७(२१ से २७)=२३, प्र.वि. त्रिपाठ-संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२६.५४११.५, १-७४४०).
आचारांगसूत्र , आ. सुधर्मास्वामी, प्रा., प+ग., आदि: (-); अंति: (-), (प्रतिअपूर्ण, पू.वि. बीच-बीच के पत्र हैं., द्वितीय
श्रुतस्कंध, प्रथम उद्देशक से सप्तम तक एवं प्रथम- पिंडेसणा अध्ययन के उद्देशक- ११ अपूर्ण से द्वितीय सेज्जा
अध्ययन, उद्देश-१ अपूर्ण तक है.)
आचारांगसूत्र-टबार्थ, मा.गु., गद्य, आदि: (-); अंति: (-), प्रतिअपूर्ण, पू.वि. बीच-बीच के पत्र हैं. ५६८८१. (+#) उत्तराध्ययनसूत्र सह टबार्थ, अपूर्ण, वि. १९वी, श्रेष्ठ, पृ. ९६-७६(१ से २१,३०,३४ से ३७,४५ से ७०,७२ से
९५)=२०, पृ.वि. बीच-बीच के पत्र हैं., प्र.वि. पदच्छेद सूचक लकीरे-संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२७४११, ४X४०).
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