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कैलास श्रुतसागर ग्रंथ सूची कल्पसूत्र-टबार्थ *, मा.गु., गद्य, आदि: अरिहंतने नमस्कार हओ; अंति: वली देखाडइंइम कहइ. ५७४००. (+) व्याश्रय महाकाव्य सह टीका-सर्ग १ से ८, संपूर्ण, वि. १५८२, मध्यम, पृ. ११३, ले.स्थल. विश्वलपुर,
प्रले.ग. हर्षसुंदर; अन्य.पं.लब्धिश्रुत गणि; मु. प्रमोदसुंदर (गुरु ग. श्रुतमाणिक्य); गुपि.ग. श्रुतमाणिक्य; राज्ये गच्छाधिपति हेमविमलसूरि (तपागच्छ), प्र.ले.पु. मध्यम, प्र.वि. संशोधित. कुल ग्रं.७५५८, जैदे., (२६.५४११, १८-२३४५३-८१).
व्याश्रयमहाकाव्य, आ. हेमचंद्रसूरि कलिकालसर्वज्ञ, सं., पद्य, आदि: अर्हमित्यक्षरं ब्रह; अंति: (-), प्रतिपूर्ण. व्याश्रयमहाकाव्य-टीका, ग. अभयतिलक, सं., गद्य, वि. १३१२, आदि: (१)श्रीभूर्भुवः स्व, (२)अर्हमिति
वर्णसमुदाय; अंति: (-), ग्रं. १०३२, प्रतिपूर्ण. ५७४०१. (+) जीवाभिगमसूत्र सहटीका, अपूर्ण, वि. १७वी, श्रेष्ठ, पृ. १२१-२४(१ से ४,७०,९५ से ११३)=९७, पृ.वि. बीच-बीच के पत्र हैं., प्र.वि. संशोधित., जैदे., (२६४११, १३४४४-५५).
जीवाभिगमसूत्र, प्रा., गद्य, आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. पडिपत्ति १ सूत्र २ अपूर्ण से देवाधिकार अपूर्ण तक है.)
जीवाभिगमसूत्र-टीका, आ. मलयगिरिसूरि , सं., गद्य, आदि: (-); अंति: (-). ५७४०२. (+#) कल्पसूत्र सह टबार्थ व व्याख्यान+कथा, अपूर्ण, वि. १८वी, मध्यम, पृ. १४८-५२(१ से ५,७१ से ११७)=९६,
प्र.वि. प्रतिलेखन पुष्पिका के अंतर्गत संवत् अंक हेतु मात्र १७ उपलब्ध है., पदच्छेद सूचक लकीरें-टिप्पण युक्त विशेष पाठ-संशोधित. मूल व टीका का अंश नष्ट है, अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२४.५४११, ६-११४३२-३६).
कल्पसूत्र, आ. भद्रबाहुस्वामी, प्रा., गद्य, आदि: तेणं कालेणं० समणे; अंति: उवदंसेइ त्ति बेमि, (पू.वि. बीच के पत्र नहीं
हैं., भगवान महावीर के जन्म के पश्चात् राजा सिद्धार्थ के द्वारा नगरसेवकों को दिए गए आदेश से लेकर स्थविर परंपरा
अपूर्ण तक नहीं है., वि. मूल सूत्रपाठ प्रारंभ व अंत के हैं, परंतु पीठिका व पुष्पिका के कुछ पाठांश नहीं हैं.) कल्पसूत्र-टबार्थ*,मा.गु., गद्य, आदि: तिणि कालि तिणे समयइ; अंति: स्वशिष्यनै हेतइं, पू.वि. बीच-बीच के पत्र नहीं
कल्पसूत्र-व्याख्यान+कथा*, मा.गु., गद्य, आदि: (-); अंति: (-), पू.वि. प्रारंभ, बीच व अंत के पत्र नहीं हैं. ५७४०३. (+) कल्पसूत्र सह अवचूरि, संपूर्ण, वि. १६वी, मध्यम, पृ. ८३, प्र.वि. पंचपाठ-पदच्छेद सूचक लकीरें., जैदे., (२६४११, १०४३२).
कल्पसूत्र, आ. भद्रबाहस्वामी, प्रा., गद्य, आदि: णमो अरिहंताणं० पढम: अंति: उवदंसेइ त्ति बेमि. व्याख्यान-९.
कल्पसूत्र-अवचूरि*,सं., गद्य, आदि: अत्राध्ययने त्रय; अंति: पारतंत्र्यमभिहितम्. ५७४०४. (+) कल्पसूत्र सहटबार्थ, अपूर्ण, वि. १८वी, श्रेष्ठ, पृ. ७७-३(१ से ३)=७४, पृ.वि. प्रारंभ व अंत के पत्र नहीं हैं., प्र.वि. पदच्छेद सूचक लकीरें-टिप्पण युक्त विशेष पाठ-संशोधित., जैदे., (२६४११.५, ७X४०-५०). कल्पसूत्र, आ. भद्रबाहुस्वामी, प्रा., गद्य, आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. देवानंदा के द्वारा ऋषभदत्त ब्राह्मण से
स्वप्नफल पृच्छा के वर्णन से वर्षाकाल में साधु-साध्वियों के विहार-मर्यादा तक का वर्णन है.)
कल्पसूत्र-टबार्थ*, मा.गु., गद्य, आदिः (-); अंति: (-). ५७४०५. (+#) शतकत्रय सह टबार्थ, संपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. ७५, ले.स्थल. कणगेटी, प्रले. पंन्या. मनोहरकुशल (गुरु
मु.बुद्धिकुशल); गुपि. मु. बुद्धिकुशल (गुरु मु. चयनकुशल); मु. चयनकुशल (गुरु ग. प्रतापकुशल); राज्यकाल छत्रसींघ ठाकोर, प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. पदच्छेद सूचक लकीरें-संशोधित. मूल व टीका का अंश नष्ट है, प्र.ले.श्लो. (१०७६) जब लग मेरु अडग हे, जैदे., (२५४१२, ४४३३). शतकत्रय, भर्तृहरि, सं., पद्य, ई. ७वी, आदि: यां चिंतयामि सततं; अंति: धर्म एको हि निश्चलः, शतक-३, श्लोक-३१७,
(वि. १८४३, ज्येष्ठ शुक्ल, ८, रविवार, प्र.ले.पु. सामान्य) शतकत्रय-टबार्थ, य. रूपचंद, मा.गु., गद्य, आदि: जिण प्रतई हु चित्त; अंति: एक धर्म ही ज निश्चल, (वि. १८४३,
ज्येष्ठ शुक्ल, ९, सोमवार, प्र.ले.पु. सामान्य) ५७४०६. (+) नंदीसूत्र सह टबार्थ, संपूर्ण, वि. १९१६, श्रावण शुक्ल, १३, रविवार, श्रेष्ठ, पृ. ७४, प्र.वि. टिप्पण युक्त विशेष
पाठ-संशोधित-टिप्पण युक्त विशेष पाठ., दे., (२७४१२, ८-१९४३७-४१).
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