Book Title: Kailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 14
Author(s): Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 500
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८५ हस्तलिखित जैन साहित्य १.१.१४ संबोधसप्ततिका, आ. रत्नशेखरसूरि, प्रा., पद्य, आदि: नमिऊण तिलोअगुरुं; अंति: (-), (पू.वि. गाथा-३६ अपूर्ण तक संबोधसप्ततिका-वृत्ति, आ. अमरकीर्तिसूरि, सं., गद्य, आदि: नत्वा तं श्रीमहावीर; अंति: (-). ५९२२५. (+#) कल्पसूत्र सह टबार्थ व व्याख्यान+कथा, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. १२९-४३(१ से ७,२४ से २५,४९ से ५८,६६ से ६८,८८ से ९४,९९ से १०६,११८,१२२ से १२६)=८६, पू.वि. बीच-बीच के पत्र हैं., प्र.वि. संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२६.५४११.५, ५४२९). कल्पसूत्र, आ. भद्रबाहुस्वामी, प्रा., गद्य, आदिः (-); अंति: (-), (पू.वि. बीच-बीच के पाठांश हैं.) कल्पसूत्र-टबार्थ *, मा.गु., गद्य, आदि: (-); अंति: (-). कल्पसूत्र-व्याख्यान+कथा*,मा.गु., गद्य, आदि: (-); अति: (-). ५९२२६. (+) श्रीपाल चरित्र सह टबार्थ, संपूर्ण, वि. १८४८, आषाढ़ कृष्ण, ७, श्रेष्ठ, पृ. १०९, ले.स्थल. कृष्णगढ, प्रले.पं. भगवानविजय (गुरु उपा. ऋद्धिविजय); गुपि. उपा. ऋद्धिविजय (गुरु पं. प्रमोदविजय), प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. टिप्पण युक्त विशेष पाठ-संशोधित. कुल ग्रं. १६७४, जैदे., (२६.५४११.५, ७४२८). सिरिसिरिवाल कहा, आ. रत्नशेखरसूरि, प्रा., पद्य, वि. १४२८, आदि: अरिहाइ नवपयाइं झायित; अंति: वाइजंता कहा एसा, गाथा-१३४०, ग्रं. १६७४. सिरिसिरिवाल कहा-टबार्थ *, मा.गु., गद्य, आदि: अरिहंतादिक नवपद; अंति: कहवा योग्य आ कथा. ५९२२७. (+#) सिंदूरप्रकर सह बालावबोध, संपूर्ण, वि. १८५४, चैत्र कृष्ण, ७, शनिवार, श्रेष्ठ, पृ. ९७, ले.स्थल. लींबडी, प्रले.पं. निधानविजय गणि (गुरु पंन्या. गौतमविजय); गुपि.पंन्या. गौतमविजय (गुरु पंन्या. धनविजय); पंन्या. धनविजय (गुरु पंन्या. माणिक्यविजय); पंन्या. माणिक्यविजय (गुरु पंन्या. हितविजय); पंन्या. हितविजय (गुरु उपा. शुभविजय), प्र.ले.पु. मध्यम, प्र.वि. टिप्पण युक्त विशेष पाठ-पदच्छेद सूचक लकीरें. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२६.५४११.५, ६-१६४३४). सिंदूरप्रकर, आ. सोमप्रभसूरि, सं., पद्य, वि. १३वी, आदि: सिंदूरप्रकरस्तपः; अंति: सोमप्रभ०मुक्तावलीयम्, द्वार-२२, श्लोक-१००. सिंदूरप्रकर-बालावबोध+कथा, पा. राजशील, मा.गु.,सं., गद्य, आदि: श्रीसारदाचरणयुग्ममती; अंति: बोधेकरः पाठकराजसीलेन. ५९२२८. (+#) सप्ततिका कर्मग्रंथ सह टीका, संपूर्ण, वि. १६वी, मध्यम, पृ. ८१, प्र.वि. टिप्पण युक्त विशेष पाठ-पदच्छेद सूचक लकीरें-संधिसूचक चिह्न-संशोधित-अन्वय दर्शक अंक युक्त पाठ. कुल ग्रं. ४०००, अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२८x११, १७४५५). सप्ततिका कर्मग्रंथ, प्रा., पद्य, वि. १३वी-१४वी, आदि: सिद्धपएहिं महत्थं; अंति: पूरेऊणं परिकहंतु, गाथा-७२. सप्ततिका कर्मग्रंथ-टीका, आ. मलयगिरिसूरि , सं., गद्य, आदि: अशेषकर्मांशतमःसमूह; अंति: धर्मं परममंगलम्, ग्रं. ३८८०. ५९२२९. (+) प्रश्नव्याकरणसूत्र सह बालावबोध, अपूर्ण, वि. १७वी, मध्यम, पृ. ७०, पृ.वि. अंत के पत्र नहीं हैं., प्र.वि. पंचपाठ-पदच्छेद सूचक लकीरें-संशोधित., जैदे., (२८.५४११, ५४२२). प्रश्नव्याकरणसूत्र, आ. सुधर्मास्वामी, प्रा., प+ग., आदि: जंबू इणमो अण्हयसंवर; अंति: (-), (पू.वि. श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ अपूर्ण तक है.) प्रश्नव्याकरणसूत्र-बालावबोध, आ. पार्श्वचंद्रसूरि, मा.गु., गद्य, आदि: तेजवंत श्रीवर्द्धमान; अंति: (-). ५९२३०. (+) दशवैकालिकसूत्र सहटीका, संपूर्ण, वि. १८४९, चैत्र शुक्ल, ४, श्रेष्ठ, पृ. ७०, ले.स्थल. पालीताणा, प्र.वि. त्रिपाठ-संशोधित. कुल ग्रं. ३४००, जैदे., (२७४१२, १-५४४७). दशवैकालिकसूत्र, आ. शय्यंभवसूरि, प्रा., पद्य, वी. रवी, आदि: धम्मो मंगलमुक्किट्ठ; अंति: मुच्चइ त्ति बेमि, अध्ययन-१०. दशवैकालिकसूत्र-दीपिका वृत्ति, उपा. समयसुंदर गणि, सं., गद्य, वि. १६९१, आदि: स्तंभनाधीशमानम्य; अंति: ब्रवीमीति पूर्ववत्, अध्ययन-१०, ग्रं. ३४००. For Private and Personal Use Only

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