Book Title: Kailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 14
Author(s): Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 477
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६२ कैलास श्रुतसागर ग्रंथ सूची उवसग्गहर स्तोत्र-गाथा ९, आ. भद्रबाहस्वामी, प्रा., पद्य, आदि: उवसग्गहरं पासं पास; अंति: पास जिणंदो नमुस्वामी, गाथा-१८, (वि. प्रतिलेखक ने एक गाथा को दो गाथा लिखा है.) ३. पे. नाम. लघुशांति, पृ. ४आ-५आ, संपूर्ण. आ. मानदेवसूरि, सं., पद्य, आदि: शांति शांति निशांतं; अंति: जिनेश्वरे, श्लोक-१८. ५८९६२. (+#) प्रत्याख्यान सूत्र, संपूर्ण, वि. १८७३, ?, मध्यम, प्र. ५, ले.स्थल. पटणा, प्र.वि. प्रतिलेखन वर्ष की अंतिम संख्या अस्पष्ट है., संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२३.५४११.५, ९४२१). प्रत्याख्यानसूत्र, संबद्ध, प्रा., गद्य, आदि: उग्गेए सूरे नमुक्कार; अंति: आगारेणं वोसिरे. ५८९६३. (+) सामाइक अतिचार, संपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. ५, ले.स्थल. जेशलमेर, प्रले. श्राव. ताराचंद, प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. पदच्छेद सूचक लकीरें., जैदे., (२३.५४११, १२४३३). __सामायिक अतिचार, प्रा., गद्य, आदि: नमो चउवीसाए तित्थयरा; अंति: अरे समणे तहा संघे. ५८९६४. अर्हन्नाम स्तोत्र व जिनपंजर स्तोत्र, संपूर्ण, वि. १९वी, श्रेष्ठ, पृ. ५, कुल पे. २, जैदे., (२३.५४११, १६४३८). १.पे. नाम. अर्हन्नाम स्तोत्र, पृ. १अ-४आ, संपूर्ण. अर्हन्नामसहस्र समुच्चय, आ. हेमचंद्रसूरि कलिकालसर्वज्ञ, सं., पद्य, वि. १२वी-१३वी, आदि: अर्हन्नामापि कर्ण; अंति: सानंदं महानंदैककारणं, प्रकाश-१०. २. पे. नाम. जिनपंजर स्तोत्र, पृ. ४आ-५आ, संपूर्ण. आ. कमलप्रभसूरि, सं., पद्य, आदि: ॐ ह्रीं श्रीं अहँ, अंति: असौ श्रीकमलप्रभाक्षः, श्लोक-२४. ५८९६५. (-#) कल्याणमंदिर स्तोत्र, संपूर्ण, वि. १९०१, ज्येष्ठ शुक्ल, ९, रविवार, मध्यम, पृ. ५, ले.स्थल. रांणावस, प्रले. मु. हुकमचंद (गुरु मु. माणिकचंद); पठ. मु. अनोपचंद ऋषि, प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. अशुद्ध पाठ. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, दे., (२४४११, ९४३०). कल्याणमंदिर स्तोत्र, आ. सिद्धसेनदिवाकरसूरि, सं., पद्य, वि. १वी, आदि: कल्याणमंदिरमुदार; अंति: कुमुद० प्रपद्यते, श्लोक-४४. ५८९६८. (+) कल्पसूत्र सह कल्पसुबोधिका टीका, संपूर्ण, वि. १७३७, श्रावण शुक्ल, ९, गुरुवार, श्रेष्ठ, पृ. १९९+२(११६,१४७)=२०१, ले.स्थल. जलालपुर, प्रले. ग. नेमविजय (गुरु पं. अमृतविजय); गुपि.पं. अमृतविजय; राज्ये आ. विजयराजसूरि (गुरु आ. विजयानंदसूरि, तपागच्छ); आ. विजयमानसूरि (तपागच्छ), प्र.ले.पु. मध्यम, प्र.वि. त्रिपाठ-द्विपाठ-पदच्छेद सूचक लकीरें-टिप्पण युक्त विशेष पाठ-संशोधित., जैदे., (२४.५४११, १४४३६-४०). कल्पसूत्र, आ. भद्रबाहुस्वामी, प्रा., गद्य, आदि: तेणं कालेणं० समणे; अंति: अज्झयणं सम्मत्तं, व्याख्यान-९. कल्पसूत्र-सुबोधिका टीका, उपा. विनयविजय, सं., गद्य, वि. १६९६, आदि: प्रणम्य परमश्रेयस्कर; अंति: विद्वजनैराश्रिता. ५८९६९. (+#) कल्पसूत्र सह कल्पलताटीका व टबार्थ, संपूर्ण, वि. १८वी, मध्यम, पृ. २०५+२(५८,११३)=२०७, पठ. ग. देवसुंदर (गुरु ग. मानसुंदर); गुपि.ग. मानसुंदर, प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. प्रतिलेखनपुष्पिका श्लोक का भी टबार्थ दिया गया है.. संशोधित-टिप्पण युक्त विशेष पाठ-त्रिपाठ. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, प्र.ले.श्लो. (१) यादृशं पुस्तकं दृष्ट्वा, (६२) मंगलं लेखकानांच, (८५) जलाद्रक्षे स्थलाद्रक्षे, (४८९) भग्नपृष्टि कटीग्रीवा, जैदे., (२४.५४११, १-६४३२-३५). कल्पसूत्र, आ. भद्रबाहस्वामी, प्रा., गद्य, आदि: नमो अरिहंताणं नमो; अंति: उवदंसेइ त्ति बेमि, व्याख्यान-९. ग्रं. १२१६, संपूर्ण. कल्पसूत्र-कल्पलता टीका, उपा. समयसुंदर गणि, सं., गद्य, वि. १६८५, आदि: प्रणम्य परमं ज्योतिः; अंति: (-). (पूर्ण, पृ.वि. प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण., सिंहकेसरिकामोदक दृष्टांत तक लिखा है., वि. टीकापुष्पिका में "कल्पसूत्रस्य दीपिकासुबोधिका संपूर्णा" लिखकर पूर्ण कर दिया परंतु २४ वी सामाचारी तक ही टीका लिखी मिलती है.) कल्पसूत्र-टबार्थ *, मा.गु., गद्य, आदि: अरिहंतनइ माहरो; अंति: जणाविउं एणइ मेलिई, संपूर्ण. ५८९७१. ढालसागर, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. १४९-६२(१,२४,६७ से १२६)=८७, पू.वि. प्रथम एक, बीच व अंत के पत्र नहीं हैं, जैदे., (२४४११.५, १५४३५). For Private and Personal Use Only

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