Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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| 10 जनवरी 2011 ॥
| जिनवाणी गुरु होने के साथ कोई श्रमण भी हो तो उसमें अधिक वैशिष्ट्य होता है, क्योंकि श्रमण का आचरण पक्ष सबल होता है। श्रमण में ज्ञान भी होता है और आचरण भी, क्योंकि बिना ज्ञान के आचरण का विशेष महत्त्व नहीं होता। प्रत्येक श्रमण ज्ञान और क्रिया का आराधक होता है। ज्यों-ज्यों उसमें योग्यता का विकास होता है तो वह दूसरों को भी ज्ञान देता है एवं आचरण में प्रवृत्त करता है, यही उसका गुरुत्व है।
जैन श्रमण-परम्परा में तीर्थंकर के लिए भी ‘श्रमण' विशेषण प्रयुक्त हुआ है। भगवान् महावीर के लिए ‘समणे भगवं महावीरे' शब्दों का प्रयोग आगम में बहुशः दृग्गोचर होता है। इसका अर्थ है कि तीर्थंकर भी गुरु हैं, क्योंकि वे श्रमण हैं। उनके सान्निध्य में हजारों-लाखों व्यक्तियों ने ज्ञान प्राप्त किया, श्रमणत्व एवं श्रमणोपासकत्व को प्राप्त किया। वे सर्वोत्कृष्ट गुरु हैं। वे सम्पूर्ण लोक में ज्ञान का प्रकाश प्रसरित करने वाले हैं - ‘लोगस्स उज्जोयगरे'। साधारण गुरु तो कुछ लोगों में ही ज्ञान का प्रकाश सम्प्रेषित कर पाते हैं, किन्तु तीर्थंकर सम्पूर्ण लोक में ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं। जिसमें जितनी योग्यता है वह उतना ग्रहण कर लेता है। उनका द्वार सबके लिए खुला है। तीर्थंकर को अरिहन्त के रूप में यद्यपि । जैन परम्परा ‘देव तत्त्व' में समाविष्ट करती है, किन्तु जिन व्यक्तियों को तीर्थंकरों ने साक्षात् उपदेश दिया उनके लिए तो तीर्थंकर गुरु ही थे। हमारे लिए अब वे देव के रूप में उपास्य हैं। सिद्ध भी देव हैं।
वर्तमान में जैन परम्परा में गुरु के अन्तर्गत आचार्य, उपाध्याय और साधु-साध्वी का अन्तर्भाव किया जाता है। ये तीनों गुरुपद के रूप में पूज्य एवं श्रद्धेय हैं। ये सभी श्रमण भी हैं। इनमें ज्ञान और क्रिया का समावेश है। साधु-साध्वी पंच महाव्रतधारी होने के साथ ईर्यादि पाँच समितियों तथा मनोगुप्ति आदि त्रिगुप्तियों के पालक होते हैं। उनकी साधना ज्ञानपूर्वक यतना के साथ होती है। उन्हें स्पष्ट रूप से गुरु स्वीकार किया गया है- 'सुसाहुणो गुरुणो' अर्थात् सुसाधु मेरे गुरु हैं। सुसाधु से आशय उस साधु से है जो साधुत्व का पालन ठीक ढंग से कर रहा है। श्रमण की यह साधारण श्रेणी है, इनसे अधिक गुणवान उपाध्याय और आचार्य होते हैं। उपाध्याय का कार्य मुख्यतः श्रुतज्ञान का वितरण है। वे आगमों के ज्ञाता होने के साथ आचार पक्ष के भी वेत्ता होते हैं। आचार्य संघ के नायक होने के साथ आचार की पालना कराने में सजग होते हैं। आचार पालन पर इनका अधिक बल होता है। ये सभी श्रमण गुरु ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार्य और वीर्याचार के धनी होते हैं।
श्रमण की अन्य विशेषताओं में क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य, शौच और आकिंचन्य इन दस धर्मों की साधना तथा क्षुधा-पिपासा आदि परीषहों को समभाव से सहन करने की क्षमता को गिना जा सकता है। वे सरलचित्त होते हैं, निरभिमानी होते हैं, निरासक्त होते हैं, निर्ग्रन्थ होते हैं, क्षमाशील होते हैं, तपस्वी होते हैं, ब्रह्मचारी होते हैं, आत्मदमी होते हैं, विकार-विजय की साधना में सन्नद्ध रहते हैं तथा अपने दोषों को जानकर उनका निराकरण करने में तत्पर होते हैं। वे पदयात्रा करते हैं, वस्त्र अत्यन्त सीमित रखते हैं, स्वाद-विजेता होते हैं, एषणा समिति के नियमों का पालन करते
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