Book Title: Jinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Author(s): Dharmchand Jain, Others
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 10
________________ 10 जिनवाणी 10 जनवरी 2011 व्यक्ति में प्रकाश का अनुभव होता है। वह ज्ञान ही अज्ञान का नाश करता है। इसलिए ज्ञान भी तत्त्व के रूप में गुरु है और जिस व्यक्ति से हमें ज्ञान की प्राप्ति होती है वह व्यक्ति के रूप में गुरु है । यों तो ज्ञान न्यूनाधिक रूप में सबको प्राप्त है, किन्तु वह ज्ञान मिथ्या है या सम्यक् इसका हमें बोध नहीं होता । गुरु यह बोध कराता है कि कौनसा ज्ञान सही है और कौनसा नहीं । अज्ञान अंधकार का नाश किस प्रकार हो सकता है इसका मार्ग हमें गुरु व्यक्ति से प्राप्त होता है। इसलिए ऐसे गुरु हमारे लिए पूज्य हैं। जब गुरु की सही पहचान हो जाए और हमें उनके सान्निध्य में ज्ञान के उजाले का अनुभव हो तो ऐसे गुरु के प्रति शिष्य का समर्पण आवश्यक है। श्रद्धा का अतिरेक ही समर्पण में बदल जाता है। इसका अर्थ यह नहीं कि उसमें कोई जिज्ञासा नहीं रहती, शिष्य में जिज्ञासा होने पर ही वह अपने अज्ञान को दूर करने का उपाय जान पाता है तथा उसे आचरण में लाने में सक्षम बनता है। शिष्य में जिज्ञासा के साथ विनय का होना आवश्यक है। विनीत शिष्य को ही गुरु सही ढंग से ज्ञान दे पाता है। शिष्य ज्ञान न सीख सके तो उसका सम्पूर्ण दोष हम आचार्य पर नहीं मढ़ सकते। शिष्य की अपनी कमजोरियाँ होती हैं जो उसकी ज्ञान-प्राप्ति में बाधक बनती हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में अभिमान, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य को शिक्षा-प्राप्ति में बाधक माना गया है। अविनीत शिष्य कौन होता है, इसे भी उत्तराध्ययन सूत्र में समझाया गया है। ग्यारहवें अध्ययन में अविनीत शिष्य के 14 स्थान बताते हुए कहा गया है कि ऐसा अविनीत शिष्य निर्वाण को प्राप्त नहीं होता, वे स्थान है- 1. जो बार-बार क्रोध करता है 2. क्रोध को टिका कर रखता है। 3. जो मित्रभाव रखने वाले को भी ठुकराता है 4. श्रुत को प्राप्त कर मद करता है 5. किसी की स्खलना होने पर उसका तिरस्कार करता है 6. जो मित्रों पर कुपित होता है 7. जो अत्यन्त प्रिय मित्र की भी एकान्त में बुराई करता है 8. जो असम्बद्धभाषी है 9. जो देशद्रोही है 10. जो अभिमानी है 11. जो सरस आहार आदि में लुब्ध है 12. जो अजितेन्द्रिय है 13. जो असंविभागी है तथा 14. जो अप्रीतिकर है। इन स्थानों से स्पष्ट होता है कि शिष्य में भी निरन्तर योग्यता का विकास आवश्यक है । यद्यपि भगवान् महावीर के पास अत्यन्त पापी अर्जुनमाली जैसे हत्यारे ने भी शिष्यत्व अंगीकार किया, तथापि वे अपनी पात्रता का निरन्तर परिष्कार करते हुए समत्व में आगे बढ़ते गए। गुरु उचित भूमि की परीक्षा करता है तथा उसमें ज्ञान का बीज वपित करता है। कुछ ऊसरभूमि की तरह शिष्य होते है, जिन्हें किसी भी रीति से ज्ञान दिया जाए, ग्रहण नहीं कर पाते हैं अथवा उस ज्ञान को अज्ञान में बदल देते हैं। गुरु भी यदि प्रज्ञाशील न हो, शिष्य की पात्रता की परीक्षा करना न जानता हो अथवा स्वयं ज्ञान के अनुरूप आचरण न करता हो तो वह भी शिष्य को अध्यात्म मार्ग पर आगे बढ़ाने में सफल नहीं हो पाता है। इसलिए गुरु और शिष्य दोनों जितने सुयोग्य होंगे उतना ही ज्ञान का सम्प्रेषण सरल होगा । सभी लोगों के साथ गुरु की समान अन्तरंगता सम्भव नहीं है, फिर भी गुरु का प्रसाद असीम रूप से सबको प्राप्त हो सकता है। अल्प समय में और संकेतों में ही गुरु अपने भक्तों का मार्गदर्शन कर सकते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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