Book Title: Jinavarasya Nayachakram
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 9
________________ प्रकाशकीय समस्त जिनागम नयां की भाषा में निबद्ध है। अन आगम के गहन अभ्यास के लिए जिसप्रकार नयों का स्वरूप जानना अत्यन्त आवश्यक है, उसीप्रकार आत्मा के सम्यक् अवलोकन अर्थात् अनुभव के लिए भी नयविभाग द्वारा भेदज्ञान करना परमावश्यक है । उसप्रकार आगम और अध्यात्म - दोनो के अभ्यास के लिए नयां का स्वरूप गहराई में जानन की आवश्यकता असदिग्ध है । प्रस्तुत ग्रन्थ 'जिनवरस्य नयचक्रम्' में नयो का स्वरूप एवं उनके सम्बन्ध मे आनेवाली विराम गुत्थियो को सुलझाते हुए सरल एवं सुबोध भाषा में यह बात बहुत अच्छी तरह स्पष्ट की गई है कि इनमें अपने आत्महितरूप प्रयोजन की मिद्धि किमप्रकार हो सकती है । प्रस्तुतिकरण इतना सुन्दर है कि कही भी उलझाव नही हाता. सर्वत्र समन्वय की सुगन्ध प्रतिभासित होती है । उस प्रभुत ग्रन्थ की रचना का भी एक इतिहाम ह । बान सन् १६७६ ई० की है | श्रावणमास में लगनेवाले मानगढ शिविर में जब डॉ० हुकमचन्दजी भारिल्ल ने 'नयचक्र' ग्रथ वा उत्तम कक्षा के रूप मे पढाने के लिए चुना और उसमें से अध्यात्म के गंभीर न्याय प्रस्तुत किये, तब उपस्थित सम्पूर्ण मुमुक्षु समाज को लगा कि नयो के गहरे अध्ययन बिना जिनागम का मर्म समझ पाना सहज संभव नही है । ग्रवत जो 'नयचत्र' न्याय का ग्रन्थ माना जाकर मुमुक्षु ममाज में अध्ययन की दृष्टि में उपेक्षित रह गया था. उसके गहरे अध्ययन की जिज्ञासा भी डॉ० भाग्लिजी के विवेचन द्वारा जागृत हो गई । सभी की भावनानुसार उपयुक्त अवसर जानकर मैंने डो० भाग्लिजी से 'क्रमबद्धपर्याय समाप्त हो जाने के बाद ग्रात्मधर्म के सम्पादकीयो के रूप मे एक लेखमाला नयो के सम्बन्ध मे चलाने का आग्रह किया। यह बात लिखते हुए मुझे गौरव का अनुभव हो रहा है कि उन्होने मेरे आग्रह को स्वीकार कर अप्रेल १६८० में श्रात्मधर्म मे 'जिनवरस्य नयचक्रम्' नाम से यह लेखमाला आरम्भ की, जो ग्राज तक चल रही है और आगे भी न जाने कब तक चलेगी | उक्त लेखमाला का समाज में कल्पनातीत स्वागत हुआ। अधिक क्या लिखूं ? जब एकबार मुमुक्षु समाज के शिरमौर अध्यात्मिक प्रवक्ता पण्डित श्री लालचन्दभाई अमरचन्दजी मोदी, राजकोट ने मुझसे कहा कि मै तो इस लेखमाला के पेजो को आत्मधर्म से निकालकर अलग फाइल बनाकर रखता हूँ, क्योकि अलग-अलग अंको मे

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