Book Title: Jinabhashita 2009 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 4
________________ सम्पादकीय चेतना-जागरण का पर्व : पर्युषण भारतीय संस्कृति में पर्वो का विशेष महत्त्व है, क्योंकि वे व्यक्ति को मर्यादा में रहकर मर्यादित आचरण करना सिखाते हैं। यह मर्यादा स्वतंत्रता देती है, किन्तु स्वच्छन्दता पर रोक लगाती है। यह मात्र स्वयं जीने का दर्शन नहीं, अपितु 'जियो और जीने दो' का दर्शन है। यह दूसरों को नियंत्रित करने के बजाय, स्वयं को नियन्त्रित करने का माध्यम है, जिसके सहारे हम वह सब पा सकते हैं, जिससे सुख मिलता है, शान्ति मिलती है, यश मिलता है। वास्तव में मानवीय जीवन को गरिमा इन पर्यों से ही मिलती है। जैनधर्मानुयायियों द्वारा प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल पंचमी से भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी तक मनाया जाने वाला पर्युषण पर्व ऐसा ही पर्व है, जिसे पर्यों का राजा कहा जाता है। यह हमें आत्मानुशासन सिखाता है। यह क्रोध के स्थान पर निर्वैरजन्य समता (उत्तमक्षमा धर्म), अहंकार के विरुद्ध विनम्रता (उत्तम मार्दव धर्म), कुटिलता के विरुद्ध सरलता (उत्तम आर्जव धर्म), लोभजन्य अशुचिता के स्थान पर शुचिता (उत्तम शौच धर्म), असद् व्यवहार के विरुद्ध सत्य (उत्तम सत्य धर्म), स्वेच्छाचारिणी दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध संयमित जीवन (उत्तम संयम धर्म), लक्ष्यात्मक चेतना जगाने के लिए तपस्या (उत्तम तप धर्म), स्व और पर की भलाई या उपकार के लिए धनादिक का दान तथा राग-द्वेष-विमोचन रूप त्याग (उत्तम त्याग धर्म), 'सब सुखी हों, कोई दुःखी न रहे' की भावनावश परिग्रह के प्रति आसक्ति का विसर्जन (उत्तम आकिञ्चन्य धर्म) एवं आत्मनियंत्रण रूप (उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म) होने से प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी है। आज सब कुछ सम्पन्नता है, किन्तु अनुशासन, संस्कृति, नैतिकता और प्रकृति प्रदत्त सुख की विपन्नता है। हम समर्पण में भी अंहकार का विसर्जन नहीं कर पा रहे हैं, जबकि यह स्पष्ट है कि समर्पण लकड़ी जैसा है, जिसे कोई छुपा नहीं सकता और अहंकार पत्थर जैसा है, जिसे कोई तैरा नहीं सकता, किन्तु तिरा सकने वाली लकड़ी की नाव में बैठने के स्थान पर, जो पत्थर की नाव में सवारी करना चाहते हैं उनका डूबना तय है। हमारा अहंकार हमें अनुशासन का सम्मान नहीं करने देता, वह तो नियम तोड़ने को स्वतंत्रता मानता है। उसका सोच है कि जो कुछ है मेरे लिए है, अब मैं इसे रखू या इसे तोडूं। यह संस्कारहीनता हमें उच्चता के शिखरों का स्पर्श ही नहीं करने देती। मनुष्य होने के नाते हमारा लक्ष्य स्पष्ट होना चाहिए। सम्राट अमोघ वर्ष ने 'प्रश्नोत्तर-रत्नमालिका' में लिखा है किं दुर्लभं? नजन्म, प्राप्येदं भवति किं च कर्त्तव्यम? __ आत्महितमहितसंगत्यागो रागश्च गुरुवचने॥ अर्थात् दुर्लभ क्या है? मनुष्यजन्म। यदि प्राप्त होता है तो क्या करना चाहिए? आत्महित करना चाहिए अहितसंग का त्याग करना चाहिए और गरुवचनों में राग करना चाहिए। __ आज का मनुष्य अपने होने की दुर्लभता को भूल गया है। उसने धन की निकटता में दिलों की दूरियाँ बढ़ा ली हैं। आज वह दूरदर्शन भले ही देखता हो, किन्तु उसमें दूरदृष्टि का अभाव दिखाई दे रहा है। भौतिक सुख-सुविधाओं के लालच में वह प्राकृतिक संसाधनों को कुचल रहा है। प्रकृति में विकृति भले ही न आयी हो, किन्तु हमारे सोच में विकृति आयी है। हम अपने मूल्यों का संरक्षण नहीं कर पा रहे हैं, यहाँ तक कि अपना मूल्य भी खोते जा रहे हैं, तब प्रगति की सराहना कैसे करें? किसी ने ठीक ही कहा है ये अँधेरे भले थे कि कदम राह पर थे, ये रोशनी लाई है मंजिल से बहुत दूर हमें। नैतिकता के सच्चे प्रेरक हमारे पर्व होते हैं। वे अध्यात्म से जोड़ते हैं। जीने की कला सिखाते अगस्त 2009 जिनभाषित ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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