Book Title: Jinabhashita 2009 08 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 5
________________ हैं। तत्त्वचिन्तन एवं आत्माराधना के अवसर प्रदान करते हैं। इन दिनों व्यक्ति संसार के यथार्थ स्वरूप की जानकारी, संसार से बचने के उपाय एवं उत्तमक्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिञ्चन्य एवं ब्रह्मचर्य रूप दशधर्मों का यथार्थ चिन्तन-मनन कर उन्हें अंगीकार करने का प्रयत्न करता है। आत्मापरमात्मा की निकटता के लिए इन दिनों उपवास किये जाते हैं, स्वाध्याय होता है और संयमयुक्त जीवन को जीवन का अंग बनाया जाता है। पर्युषण पर्व से जुड़ना आत्महित के लिए आत्मगौरव की बात है। जिन्दगी विचारों की जंग है। यदि प्रशस्त विचार मिलें, सार्थक चिन्तन हो, तो जीवन में आस्था के रंग भरने लगते हैं। इसके लिए धर्म की शरण में जानेवाला व्यक्ति स्वयं को पतित से पावन बना लेता है। हम मानव हैं और विकास चाहते हैं। किन्तु इसके लिए आत्मबल के साथ-साथ कठोर परिश्रम, सदाशयता, सदाचारपर्ण जीवन जीते हए विलासिता से दर रहना आवश्यक है। मनुष्य जिन विलासिता की वस्तुओ का संगृहीत करके बड़ा दिखना चाहता है, वह कालान्तर में स्वयं वस्तु बनकर रह जाता है और वस्तु स्वभाव-अपनी आत्मा से दूर हो जाता है। जो बाधक तत्त्वों को साधक मानता है, वह बन्धनविमुक्त कैसे हो सकता है? पर्युषणपर्व सच्ची सवतंत्रता की ओर ले जाता है, क्योंकि वह धर्ममय जीवन का संदेश देता है। नीतिकार कहते हैं सुपुरुष तीन पदारथ साधहिं, धर्म विशेष ज्ञान आराधहिं। धर्म प्रधान कहैं सब कोय, अर्थ काम धर्महिं तें होय॥ अर्थात् सज्जन पुरुष तीन पदार्थों को साधते हैं- धर्म, अर्थ और काम। ज्ञान से धर्म की विशेष आराधना करते हैं। सभी लोग धर्म को प्रधान कहते है, क्योंकि धर्म से ही अर्थ और काम की सिद्धि होती है। पर्युषण पर्व जीवन में आत्मशोधन का निमित्त उपस्थित करता है। वह चाहता है कि मानव अपने हित पर विचार करे, अपने स्वभाव की ओर मुड़े। क्षमा, मार्दव, आर्जव जैसे स्वाभाविक गुणों की क्या स्थिति है, यह विचार मन में लाकर अभय की साधना करनेवाला मनुष्य 'जियो और जीने दो' की भावना को जब हृदयंगम करता है, तब पर्वाराधना पूर्ण होती है। मनुष्य को कौन से कार्य करना चाहिए, ताकि मनुष्यभव के फल की प्राप्ति हो, इस विषय में कहा गया है का परमेश्वर की अरचा विधि, सो गुरु की उपसर्जन कीजे। दीन विलोक दया धरिये चित, प्रासुक दान सुपत्तहिं दीजे॥ गाहक हो गुन को गहिये, रुचिसों जिनआगम को रस पीजे। ये करनी करिये गह में बस, यों जग में नरभौ फल लीजे॥ अर्थात् परमेश्वर की आराधना-विधि क्या है? यह गुरु की शरण में जाकर ज्ञात करना चाहिए। दीनदु:खियों को देखकर चित्त में दया धारण करना चाहिए। सुपात्रों के लिए न्यायोपार्जित शुद्ध दान देना चाहिए। गुणों का ग्राहक बनकर गुणों को ग्रहण करना चाहिए। रुचिपूर्वक जिनागम के रस का पान करना चाहिए। ये कार्य करते हुए गृह में निवास कीजिए। इस प्रकार मनुष्य भव (पर्याय) का फल संसार में प्राप्त करना चाहिए। पर्युषणपर्व हमें पशुता के धरातल से उठाकर मनुष्यता के शिखर पर बैठाने का सशक्त माध्यम है। इसके संसर्ग में आकर अनास्था आस्था में बदल जाती है, मूल्यों की पहचान होती है और जीवन मूल्यवान् बन जाता है। हम मूर्तिपूजक समाज के अंग हैं, अतः यह न भूलें कि हमें मूर्ति के माध्यम से मूर्तिमान् को प्राप्त करना है। जीवन में हम 'निज पर शासन, फिर अनुशासन' की नीति पर चलें, क्योंकि विकास की यात्रा स्वयं के बिना अधूरी ही रहती है। आस्था से अनुशासन बनता है, मर्यादा स्थापित होती है। हमें विश्वास के योग्य बनना है, विश्वास को जीतना है। हम समाज में सगा तो बना सकते हैं, किन्तु दगा नहीं दे सकते। 3 अगस्त 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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