Book Title: Jinabhashita 2009 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 33
________________ केवलियों के चारित्र का नाश करनेवाले चारित्रमोह के । कहा है- “यथाख्यातचारित्र क्षायिकपने से पूर्ण है, तथापि उदय का अभाव होने पर भी निष्क्रिय शुद्धात्म-आचरण | अघाति कर्मों को सर्वथा नष्ट करके मुक्ति रूप कार्य से विलक्षण तीन योग का व्यापार, चारित्र में दोष उत्पन्न | को उत्पन्न करने की अपेक्षा अपूर्ण है, वह शक्ति १४ करता है तथा तीन योग का जिसको अभाव है, उस वे गुणस्थान में समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति नामक शुक्ल ध्यान अयोगी जिन को, चरम समय के अतिरिक्त, शेष चार अघाति कर्मों का तीव्र उदय चारित्र में दोष उत्पन्न करता इस प्रकार यथाख्यातचारित्र की पूर्णता तथा है। चरम समय में मंद उदय होने पर चारित्र में दोष | अपूर्णता के संबंध में उपर्युक्त दोनों प्रकार की अपेक्षाओं का अभाव होने से, वह मोक्ष को प्राप्त करता है।" | से विचार करना उचित है। २. श्लोकवार्तिक १८८५-८६ में भी इस प्रकार १/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी आगरा-२८२ ००२, उ० प्र० ग्रन्थसमीक्षा मुनि श्री क्षमा सागर जी का ग्रंथ : 'कर्म कैसे करें?' सुरेश जैन 'सरल' ___ पुस्तक : कर्म कैसे करें?, प्रवचन संग्रह, लेखक एवं प्रवचनकर्ता : मुनिरत्न १०८ श्री क्षमासागर जी महाराज, प्रकाशक : मैत्री-समूह (भारत), प्राप्ति स्थान : श्री पी.एल. बैनाड़ा १ /२०० / iv प्रोफेसर कॉलोनी, हरि पर्वत, आगरा (उ.प्र.), मूल्य : रूपये ६०/-, पृष्ठ : १९२ + २०। वस्तुतः यह लेख समीक्षा की धार पर नहीं है, यह । मुझे विश्वास हुआ है कि कर्म-सिद्धांत जैसे जटिल मात्र पुस्तक-चर्चा है, जो एक दिगम्बर मुनि की प्रवचन- | विषय पर इससे अधिक सरल लेखन अन्य नहीं हो सकता। शैली से ध्वनित है। गुरुदेव पू० क्षमासागर जी की शैली | मुनिवर कहीं भी शिक्षक की तरह पाठकों को कर्म की आम-पाठक को बातों ही बातों में, जैन-दर्शन में चर्चित | परिभाषा या कर्म के भेद शास्त्रीय-भाषा में नहीं समझाते, कर्म-सिद्धांत की भावभूमि के दर्शन कराती है और सचेत | यह ही इस संकलन का चरम-चमत्कार है, हर प्रवचन करती है कि आदमी को अपने नित-प्रति के जीवन में | में वे घरेलू बोली-बानी अपना कर चले हैं। यही कारण किस तरह की सोच रखना चाहिए. किस तरह के कार्य है कि प्रवचनों में जो कछ कहते हैं, उसका संदेश पाठक सम्पादित करना चाहिए और किस तरह कर्म-बंध से बचते | को समझाता है कि मन, वाणी और देह की क्रियाओं से रहना चाहिए। मुनिवर एक 'पाठ्य पुस्तक' की रूप रेखा | निरंतर कोई न कोई कर्म उत्पन्न होता है। चाहे वह 'कर्म' जैसा विस्तार लेकर नहीं चले हैं, इस ग्रंथ में, वे अपनी | कुछ करने से हुआ हो, चाहे कुछ भोगने से या कुछ पाने प्रवचन कला से उसे जानबूझकर 'सहायक-वाचन' का | (संचित करने) से। स्वरूप प्रदान करने में सफल रहे हैं और परोक्ष में सिद्ध | मुनिवर ने हर प्रवचन में संकेत किया है कि संसार करते हैं कि जीवन की 'पाठ्य पुस्तक' आगम के अतिरिक्त में तीन हेतु कर्म-बंध की प्रक्रिया के कारण बनते हैं, वे कुछ है ही नहीं, यह तो सहायक-वाचन है, जो कर्मसिद्धांत | हैं- आदमी की आसक्ति, मोह, पुरुषार्थ में लापरवाही और के रहस्यों को समझने में दर्पणवत् है। जब पूरी पुस्तक | आदमी की अज्ञानता। गुरुदेव समझाते हैं कि मोह या पढ़ते हैं, तो ज्ञात होता है कि प्रवचन तो एक ही है, उसका आसक्ति पर व्यक्ति का जोर नहीं चल पाता, क्योंकि वर्तमान कथन १८ किश्तों में पूर्ण किया गया है। वे पाठक को आसक्ति पूर्वकृत कार्यों की फलश्रुति होती है, अतः उसका 'कर्म-सिद्धांत' के दुरूह-मार्ग पर नहीं चलने देते, जहाँ कुफल भोगना ही पड़ता है। मगर जब आदमी वर्तमान उसके सोच को कोई कंटक गड़े, वे तो उसे मनोरम उद्यान | में हो और सुदिशा में सावधानी से निःस्पृह-पुरुषार्थ करे, में घुमाते हुए ले चलते हैं कि टहलना भी हो जावे और | तो वह कर्मों की दिशा बदलने में किंचित साफल्य भी कर्म-चर्चा भी। प्राप्त कर सकता है। यही है कर्म-बंध की प्रक्रिया का 31 अगस्त 2009 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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