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अणुक्कस्सा च ।
लिखते हैं- 'अत्राह शिष्यः रागद्वेषमोहाभावे सति निर्जरा | बड्डिहाणिकारणभावादो । तेणेवकारणेण अजहण्णा कारणं भणितं, सम्यग्दृष्टेस्तु रागादयः सन्ति, ततः कथं निर्जराकारणं भवतीति ? अस्मिन् पूर्वपक्षे परिहारः - अत्र ग्रन्थे वस्तुवृत्या वीतरागसम्यग्दृष्टेर्ग्रहणम् ।'
अर्थ- शिष्य पूछता है- राग-द्वेष-मोह का अभाव निर्जरा का कारण कहा गया है। किन्तु सम्यग्दृष्टि के रागादि होते तो उसके निर्जरा कैसे हो सकती है ? आचार्य उत्तर देते हैं कि इस समयसार ग्रन्थ में वीतराग सम्यग्दृष्टि को ग्रहण करना चाहिए ।
उपर्युक्त गाथा का यदि इसप्रकार सही भाव आपने समझ लिया होता, तो उपर्युक्त जिज्ञासा उत्पन्न ही नहीं होती । सिद्धान्त इस प्रकार है कि अविरतसम्यग्दृष्टि के पंचेन्द्रियों के विषयों का सेवन करते हुए मात्र बंध ही होता है, निर्जरा नहीं होती। जबकि पाँचवें या इससे ऊपर के गुणस्थानवर्ती जीव के सांसारिक कार्य करते हुए भी व्रती होने के कारण प्रतिसमय निर्जरा होती है ।
उपर्युक्त प्रकरण पर पं० टोडरमल जी ने मोक्षमार्गप्रकाशक के आठवें अधिकार में इसप्रकार कहा हैंसम्यग्दृष्टि की महिमा दिखाने के लिए, जो तीव्र बंध के कारण भोगादि प्रसिद्ध थे, उन भोगादिक के होते हुए भी श्रद्धान / भक्ति के बल पर मंद बंध होने लगा, उसको तो गिना नहीं और उसके ही बल से निर्जरा विशेष होने लगी, इसलिए उपचार से भोग को भी बंध का कारण नहीं कहा, निर्जरा का ही कारण कहा । विचार करने पर, यदि भोग ही निर्जरा के कारण हों, तो उनको छोड़कर सम्यग्दृष्टि, मुनिपद का ग्रहण क्यों करें।
प्रश्नकर्ता - पं० न्यादरमल जैन शास्त्री
जिज्ञासा - तेरहवें गुणस्थान में होनेवाला यथाख्यातचारित्र पूर्ण होता है या उसमें कुछ कमी रहती है? समाधान- आपकी उपर्युक्त जिज्ञासा को हमें दो तरह से समझना होगा । १. यथाख्यातचारित्र पूर्ण है तो किस दृष्टि से ? २. उसमें अपूर्णता है तो किस दृष्टि से ?
१. ११वें से १४ वें गुणस्थान तक होनेवाले यथाख्यातचारित्र में चारित्रमोहनीय का अभाव होने के कारण कोई जघन्य या उत्कृष्ट भेद नहीं होता है, जैसा कि श्री षटखण्डागम ७ / २ में कहा है
अर्थ- यथाख्यातविहार-शुद्धिसंयत की अजघन्यानुत्कृष्टचारित्रलब्धि अनन्तगुणी है। कषाय का अभाव हो जाने से उसकी वृद्धि हानि के कारण का अभाव हो गया है । इसी कारण वह अजघन्यानुत्कृष्ट भी है । अर्थात् ११ वें गुणस्थान से १४वें गुणस्थान तक इसमें जघन्य व उत्कृष्ट भेद नहीं होता ।
उपर्युक्त सभी प्रमाणों से स्पष्ट है कि ११ वें गुणस्थान से १४वें गुणस्थान तक कषायों का उपशम अथवा क्षय होने के कारण उत्पन्न यथाख्यातचारित्र एकसा है, सम्पूर्ण है और भेदरहित है। अब दूसरी दृष्टि से विचार करते हैं
बृहद्द्रव्यसंग्रह गाथा २३ की टीका में इसप्रकार कहा है
"यहाँ शिष्य पूछता है कि केवलज्ञान की उत्पत्ति होने पर मोक्ष के कारणभूत रत्नत्रय की परिपूर्णता हो गई, तो उसी क्षण मोक्ष होना चाहिए। अतः सयोगी और अयोगी जिन नामक दो गुणस्थानों का काल नहीं रहता है। इस शंका का उत्तर देते हैं- 'यथाख्यातचारित्र तो हुआ परन्तु परमयथाख्यात - चारित्र नहीं है। यहाँ दृष्टान्त
जहाक्खादबिहारसुद्धिसंजदस्स अजहण्ण-अणुक्क- है- जैसे कोई मनुष्य चोरी नहीं करता है, तो भी उसे स्सिया चरित्तलद्धी अनंतगुणा ॥१७४॥ कषायाभावेण । चोर के संसर्ग का दोष लगता है। उसी प्रकार सयोग
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२. श्रीधवल पु०६, पृष्ठ- २८६ पर इसप्रकार कहा है- 'एवं जहाक्खादसंजमद्वाणं उवसंत-खीणं-सजोगिअजोगीणऐक्कं चेव जहण्णुक्कस्सवदिरित्तं होदि, कसायाभावादो ।'
अर्थ - यह यथाख्यात संयमस्थान उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली, इनके एक ही स्थान जघन्य व उत्कृष्ट भेदों से रहित होता है, क्योंकि इन सबके कषायों का अभाव है।
३. श्री राजवार्तिक ९/१८/१४ में इसप्रकार कहा है - ' ततो यथाख्यातचारित्रस्य विशुद्धिः सम्पूर्ण: प्रकर्षाप्रकर्षविरहतः अनन्तगुणा ।'
अर्थ - यथाख्यात चारित्र की पूर्ण विशुद्धि सर्व चारित्रों की अपेक्षा अनन्तगुणी है। इस चारित्र की पूर्ण विशुद्धि सर्व चारित्रों की अपेक्षा अनन्तगुणी है। इस चारित्र में जघन्य और उत्कृष्ट भेद नहीं हैं अर्थात् यह प्रकर्षाप्रकर्ष विभाव से रहित है।
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